लेख– स्मार्ट सिटी बाद में पहले सिर ढ़कने के लिए छत चाहिए!
किसी देश में अगर सपने बेचे जाते हैं। तो शायद वह देश हमारा अपना है। राजनीति सपनों को संजोने की कम बेचने की शायद ज़्यादा होती है। तभी तो चुनाव शुरू हुआ नहीं कि चुनावी मुलम्मा खड़ा करना राजनीतिक पैरोकार द्वारा अंतहीन सिलसिले के रूप में निकल पड़ता है। फ़िर ऐसे में चाहें सामाजिक सरोकार की पैरवी के आखिर में दम क्यों न निकल जाए। देश में लोकतांत्रिक साए में हसीं सपने न बिक रहें होते। तो अब तक ग़रीबी और भुखमरी छूमंतर हो गई होती। बिजली, पानी की समस्या का चीरहरण सियासतदां कर चुके होते। सबको स्वास्थ्य सुविधाएं मय्यसर हो रहीं होती। रोजगार के लिए अपना शहर छोड़कर महानगरों की तरफ़ पलायन नही करना पड़ता। क़ृषि आय दुगनी करने के लिए 2022 तक का समय नहीं मांगा जाता। सपने ही तो देश में बेचे जा रहें हैं। सरकारें लोगों को सस्ते में हवाई यात्रा करवाने की बात कर रही है। अमीरों को बुलेट ट्रेन में बैठाकर स्मार्ट सिटी के दर्शन करवाने पर उतावली है। पर जमीं के नीचे से आसमाँ कब खिसक जाता है, शायद उसका अंदाजा नहीं होता। सरकारी दावे असलियत में ख़्याली पुलाव से ज़्यादा कुछ साबित कर नहीं पाते। तभी तो 2014 के शुरुआती दौर में तेज़ी से शुरू हुई मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाएं जैसे सांसद आदर्श ग्राम योजना आदि की गूँज राजनीतिक गलियारों से निकलकर शायद अब कागज़ी पन्नों तक ही सिमट कर रह गई है।
रहनुमाई व्यवस्था जो आसमानी क़िले अपने मततंत्र के लिए सजाती है, समय-समय पर आने वाली रिपोर्ट्स ज़मीनी हकीकत से रुबरु कराने का काम करती हैं। सरकार के आंकड़े बताते हैं, कि बेघरों की जनसंख्या बढ़ रहीं है, औऱ उन्हें सिर छुपाने के लिए सरकारी व्यवस्था जगह उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं दिख रहीं है। जीवन की मूलभूत जरुरतों में से एक सिर के ऊपर छत मयस्सर होना आवश्यक है। जो लोगों को उपलब्ध आज़ादी के 70 वर्षों में भी नहीं हो पा रहा। तो इसका सीधा निहितार्थ यहीं है। जिस सियासी व्यवस्था ने अपने अधिकारों और फायदे के लिए आंदोलित भी हुई, उसने जनता के सपनों को पर नहीं लगाए, शायद उनके सपनों को बेचते रहे, और अपनी दुकान फ़लने-फ़ूलने दिए। बेघरों को घर मुहैया कराने के लिए गठित की गई कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि शहरी क्षेत्रों के 90 फ़ीसद ग़रीबो के पास घर नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है, कि राज्य सरकारों की गरीबों को घर उपलब्ध कराने की उदासीनता इस दिशा में रुकावट का अहम कारण है।
ऐसे में यक्ष प्रश्न चुनाव से पहले जिस ग़रीब को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की बात राजनीति करती है, उसे सत्ता में आते ही ठंडे बस्ते में क्यों डाल देती है? देश का दुर्भाग्य ही है, कि आज़ादी के बाद से अनगिनत राजनीतिक दलों की स्थापना ग़रीब कल्याण औऱ सामाजिक सरोकार के नाम पर हो गया, लेकिन समेकित विकास करने की पूर्ण इच्छाशक्ति किसी दल में नहीं दिख सकी। ऐसे में आने वाले समय में अगर हवा औऱ जमीं के नाम पर सियासी तिकड़म न खेला जाने लगें, यह कहना उचित मालूम पड़ता है। रिपोर्ट के मुताबिक 2017 के नवम्बर महीनें तक 1300 के क़रीब आश्रय स्थलो की मंजूरी दी गई थी, इनमें से सिर्फ 789 ही कार्यरत हैं। यानी सरकारी शिथिलता के कारण लोगों को अपना सिर छुपाने के लिए आश्रय नहीं मिल पा रहा है। यह इक्कीसवीं सदी का भारत है, जो विश्व नेतृत्व को उतावला है, अगर उसके लोग ख़ुद खुले आसमाँ में जीवन जीने को मजबूर हैं, फ़िर ख़ाक विश्व का नेतृत्व करेंगे। पहले अपना घर खुशहाल बनाने की बात होनी चाहिए। भारत का वर्तमान यह भी है, कि सड़कों किनारे झुग्गी-झोपड़ियों की अनगिनत माला गुथी हुई दिख जाएगी, जो विकास की हुंकार में अपने को काफ़ी पिछड़ी महसूस करती हैं।
स्थिति बदत्तर तो तब हो जाती है, जब देखने को मिलता है, कि ठंड और बरसात में सिर छुपाने के लिए लोग सडक़ किनारे पड़े पाइप औऱ ओवरब्रिज को अपना घर बना लेते हैं। फ़िर इस स्थिति को किस सदी के भारत में सम्मिलित किया जाए। राजनीति बात तो सबका साथ सबका विकास की करती है, लेकिन चकाचौंध में गरीब कहाँ गुम हो जाता है, पता चलता ही नहीं। आज के दौर में विकास की जो आंधी देश में बह रही है, वह एकाकी मार्ग को चुन चुकी है। हालात गवाही दे रहें हैं, कि सरकारी नीतियाँ चल कही ओर दिशा में रहीं हैं,और ज़मीनी हवा कुछ औऱ बयाँ कर रहीं है। न्यू इंडिया, बुलेट ट्रेन और शाइनिंग इंडिया की जरूरत देश के एक हिस्से को हो सकती है, लेकिन इसके लिए अगर दूसरे पहलू को दरकिनार किया जा रहा है, तो यह लोकतंत्र की लिहाज से भी अच्छा नहीं कहा जा सकता। लोकतंत्र में बुनियादी जरूरतें सभी को पूर्ण होनी चाहिए, जिसके लिए चुनी हुई रहनुमाई व्यवस्था जिम्मेदार भी होती है। फ़िर ऐसे में अगर व्यवस्था इन कर्तव्यों की पूर्ति करने में पीछे हट रहीं, तो यह एक उन्नतशील समाज की निशानी नहीं। आज की स्थिति यह कहती है, कि सुख-सुविधाओं में बढ़ोतरी तो हो, लेकिन सरकार का ध्यान उन लोगों के प्रति होना चाहिए, जो एक सामाजिक प्राणी होने के अधिकार के लिए आवश्यक जरुरतों से भी वंचित हैं। समाज तरक़्क़ी की सीढ़ी जब चढ़ता है, जब सभी लोगों का साथ हो, तो पहले एक जैसा सामाजिक परिवेश गठित करने पर ज़ोर तो हो।
देश में जिस हिसाब से गरीबी को लेकर अलग अलग रिपोर्ट आती है, वहीं समस्या छत मयस्सर न होने वाले लोगों का भी है। रजिस्टार जनरल के मुताबिक देश में लगभग 5.24 करोड़ लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। इसके इतर अगर देखा जाएं, तो संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की 15 फ़ीसद के करीब की आबादी मलिन बस्तियों में रहती है। मुंबई के धारावी से सभी वाकिफ़ होंगे, जो विश्व का सबसे मलिन क्षेत्र है, जो अपने देश की छवि में चार चांद लगाता है। सरकारी आंकड़ों पर नज़र करें, तो पाते हैं, कि मलिन क्षेत्रों और झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या देश में तेजी से कम हुई है। 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में सिर्फ़ 31 लाख के क़रीब घर मलिन बस्तियों में थे। एस चोपड़ा की हालिया रिपोर्ट का ज़िक्र करें, तो पता चलता है, देश की सिर्फ़ पांच फ़ीसद जनता मलिन क्षेत्रों में रहती है। अब ज्वलंत प्रश्न यह कि इन रिपोर्ट्स में इतना फर्क क्यों? जब कोई आर्थिक विकास के बढ़ते आयाम को लेकर विदेशी रिपोर्ट आती है, तो उसे राजनीति सहर्ष स्वीकार कर लेती है, फ़िर जिस रिपोर्ट से समाज सुधार आदि न होने की ख़बर पुख़्ता होती है, उससे पल्ला क्यों झाड़ लेती है। ऐसे में लोकतांत्रिक सरकारी व्यवस्था के दो रूप जगजाहिर होते हैं, जिसपर नियंत्रण ज़रूरी है। तो शहरी क्षेत्र में रहकर ग्रामीण जीवन जीने वालों के साथ अब वोट की राजनीति बंद कर मलिन क्षेत्रों में रहने वालों के उत्थान की नीति बननी चाहिए। साथ में रोजगार औऱ सिर ढकने के लिए छत उपलब्ध करवाना होगा। तभी देश एक सूत्रता में बंधकर अपनी उन्नतशीलता पर इठला सकता है, वरना सब राजनीतिक धारणाएं कोरी कागज़ ही समझ में आएंगी।