कविता

शायद कुछ सुकूं मिल जाए

तो फिर क्यों लौटा रही हो
क़िताब, वह ख़त?
और जिक्र करती हो
भूल जाने की।
किये गए समस्त
पूर्व योजनाओं को,
जिनको पूर्ण किया जा सकता है।

क्या तुम्हे नहीं मालूम?
किसी के साथ गुज़ारा गया ख़ूबसूरत क्षण,
किसी भी सूरत में, नहीं लौटाया जा सकता।

अगर जा ही रही हो,
तो सुनों!
एक चीज वापस करनी है।
जो अभी-अभी जाते-जाते दे रही हो।
अरे यार ‘तड़प’
कुछ क्षण पहले तुम्हीं ने तो दिया।
फिर मैं क्यों रखूं?

तड़प, बेकरारी, पीड़ा तुम्हारे द्वारा ही है।
एक काम करो, समूल अपने तोहफों को,
समेट ले जाओ…
शायद कुछ सुकूं मिल जाए।

रामाशीष यादव (लखनऊ)
लेखक हिन्दुस्थान समाचार समूह से जुड़े हैं।

रामाशीष यादव

Journalist at Hindusthan Samachar लखनऊ मो. 9889781416