किसान की व्यथा
दुःख उसने कभी किसे कहा था???
पीड़ा हर-पल झेल रहा था ।
जीवन भर स्वाधीन रहा…..
शासन भी है खेल रहा !!
अगणित बार धरा मुसकाई,
हाड़-तोड़ जी जान लगाई |
सुख कि खेती हरी-भरी थी….
बरदों की जोड़ी खड़ी थी |
हर-पल उसका साथ निभाते…
खेत जोतते फिर घर आते,
उसके दुःख में वो भी न खाते !!
बहुत मुश्किलें संकट आते….
खाने के लाले पड़ जाते,
सहते सहते दिन गुजारते !
दुःख उसने क्या कभी कहा है ?
इतना क्या हमने सहा है ??
आज ऐसा क्यों क्या हो गया ?
क्या रक्षक ही आज सो गया ??
रखवाला ही पथ-विमुख हो अनजाना सा हो जाता है ?
तभी किसान यह अन्नदाता वह;
भूखा प्यासा सो जाता है ?
किसे बताए अपनी बेबसी ?
किसे बताए लाचारी ??
जी तोड़ मेहनत करके जब ;
उपज अपनी मंडी ले जाता ……
कीमत उसकी लागत से भी ;
क्यों वह आधी केवल पाता ??
कौए नोंच नोंच खाते है.!!
मज़बूरी में घर लाते है !!!!
खुद के सामने खुद को बेचतें….
झुकी पीठ और दुःखी भाव है !
आज बैठा फिर वो उदास है ?
अन्धो की नगरी में बैठा ;
उजियारे की आस लगाये ??
अब तक उसने धैर्य धरा था …
इच्छा मर गयी वो न मरा था ??
आज जुबां खामोश हो गयी…..
मिली न रूखी , आँखे सूखी,
रोज रोज का तिल तिल मरना…
इससे अच्छा एकदम मरना !
अन्नदाता आज छोड़ गया था ?
प्रश्न चिह्न वो छोड़ गया था ???
क्या हुआ वो सही हुआ है ?
उसका जाना सही रहा है ?
हमसे अच्छे उसके बैल है !!!!
अंत समय जो रहे मेल है..?
अंत समय भी यही बोलते –
मालिक तुम क्यों हमें छोड़ते ?
अबकी बार हम खूब लड़ेंगे ?
हाड़ -तोड़ मेहनत करेंगे ?
क्या गया किसान वापस आएगा ?
दुःख उसका कोई समझ पायेगा ?
क्या कभी परिवर्तन आएगा ?
अन्नदाता कभी मुसका पायेगा ?
— हरीश ‘धाकड़’