मेरी भी सुनो
हाड़ मांस की गठरी ना हूँ
मैं मेरा एक दिल भी है
चंचल ,चितवन नैन नशीले
और अदा कातिल भी है
हिरणी जैसी चाल है मेरी
काले लंबे बाल भी है
क्या ये खता है मेरी बोलो
क्यों जी का जंजाल है ये
चंद कागज के टुकड़े देके
मनमानी कर जाते हो
मर्द बने घुमते फिरते हो
ताकत पर इतराते हो
देख के मुझको याद नहीं क्यों
आते तुमको रिश्ते नाते
क्या अपनी बेटी बहनों से भी
करते हो ऐसी बातें
बेटी लगती हूँ मैं किसी की
और किसी की बहन भी हूँ
पर नजरों में क्यों सबकी मैं
मस्त , महकता चमन ही हूँ
जी भर नोंचा और खसोटा
जी भर अत्याचार किया
मनमानी करके चल देना
पर ना कभी विचार किया
तुम जैसे कुछ मर्द ना होते
क्यों लाते हम जैसों को
जाल डालकर हमें फंसाते
पूजते हैं ये पैसों को
कदम कदम बाजार सजा है
कदम कदम पर पंगे हैं
इज्जत का दम भरनेवाले
खुद से होते नंगे हैं
हम बिकते हैं बिकते रहेंगे
जब तक सिक्के खनकेंगे
अंत नहीं ये अंतहीन है
जब तक लोग न समझेंगे
आदरणीय राजकुमार कांदु जी बहुत सुंदर रचना . बधाई आप को .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय !
औरत के एक पहलू के बारे सही लिखा .राजकुमार भाई रचना बहुत अछि लगी .
आदरणीय भाईसाहब ! सुंदर , सटीक प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन के लिए आपका धन्यवाद !
आदरणीय राजकुमार जी,
कड़वा सत्य कहा आपने । बहुत सुन्दर ।
आदरणीय रविंदर भाई जी ! बहुत दिनों बाद आपको इस मंच पर देखकर अद्भुत खुशी हो रही है । अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद !
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, एक महिला के यथार्थ का मार्मिक चित्रण करने वाली, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय बहनजी ! समाज के तथाकथित सफेदपोशों के काले धंधे की शिकार एक महिला की आर्तनाद है यह रचना जिसे आपने पसंद किया यह जानकर आत्मिक संतुष्टि का अहसास हो रहा है । अति सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन के लिए आपका धन्यवाद ।