कहानी- कर्म फल
एक सन्त का नगर में आगमन हुआ। प्रवचनों की श्रृंखला में उनके द्वारा दिए गए प्रवचनों से हजारों लोगों ने अपने जीवन को सार्थक किया। विद्यालयों में भी उनके द्वारा हजारों बच्चों को सम्बोधित किया गया। नगर में स्थित जेल के जेलर सा. ने भी सन्त से निवेदन किया कि जिला जेल में 1000 के लगभग सजायाफ्ता व विचाराधीन केदी है आप इन्हें भी सम्बोधित कर सुधा रस का पान करावें जिससे इनके जीवन में परिवर्तन आए। इन्हें इनके किए पर आत्मावलोकन का अवसर मिले। सन्त ने जेलर सा. के निवेदन को स्वीकार कर जेल में कर्म सिद्धान्त पर प्रवचन देते हुए कहा कि हमें अपने किए गए कर्मो की सजा तो मिलेगी ही किसी को तुरन्त तो किसी को बाद में। प्रवचनों ने कैदियों को अन्दर तक हिला दिया। ग्लानि व पश्चाताप् के अश्रुओं ने उन्हें भीगों दिया। बाद में सन्त ने सोचा कि इन कैदी लोगों से व्यक्तिगत बात की जाए जिससे पता चल सके कि क्या कारण रहे जिनके वशीभूत होकर इन्होने अपराध किया और यहाँ तक पहुँचे।
गुरूदेव ने जेलर सा. के सहयोग से कुछ कैदियों से बात की स्थिति परिस्थिति को सुना-समझा। इसी क्रम में एक केदी से जब सन्त ने बात की तो उसने कहा कि गुरूदेव मैं निर्दोष हूँ मेरा कोई दोष नहीं है मुझे फंसाया गया है। सन्त ने कहा ऐसा हो ही नहीं सकता तुमने गुनाह किया होगा तभी तो सजा मिली है, भला बेकूसर को सजा क्यों मिलेगी। तब कैदी ने जोर देकर कहा कि मैं गुनहगार नहीं हँू। मेरा भरा-पूरा परिवार है सब बिखर जाएगा। आप जेलर सा. से कहें वे आपकी बात अवश्य मानेंगे। आप मुझपर विश्वास करें मैंने कोई जुल्म नहीं किया। यह सब बात चल ही रही थी कि जेलर सा. बोले इस व्यक्ति पर किसी व्यक्ति के अपहरण व हत्या के केस दर्ज है। इसके खिलाफ पर्याप्त सबूत है इस पर आरोप भी सिद्ध हो चुका है। केदी बीच में ही बोला ऐसा नहीं है मुझे झूठा फंसाया गया है। मैं बेकसूर हूँ। सन्त ने सुना और कहा तुम झूठ बोल रहे हो, जेलर सा. के अनुसार तुमने जो अपराध किया है उसकी सजा तुम्हे मिली है तुम्हारे झूठ बोलने या चिल्लाने से अपराध माफ नहीं हो जाएगा।
वो केदी जोर से चिल्लाकर बोला गुरूदेव यहाँ जेल में मेरी किसी न नहीं सुनी आप जब यहाँ आए और प्रवचन दिए तब मुझे लगा आप तो मेरी बात सुनेंगे, समझेंगेे और मुझे निर्दोष को यहाँ से बाहर निकालने में मदद करेंगे लेकिन आप तो स्वयं ही इनकी बात सुनकर मुझे अपराधी सिद्ध कर रहे है। आपने भी मुझे अपराधी कहा। बताएं आपके पास क्या सबूत है कि मैं गुनहगार हूँ मैंने अपराध किया है। सन्त आश्चर्य में पड़ गए वास्तव में उनके पास कोई सबूत नहीं था। लेकिन गुरूदेव को अपनी वाणी पर विश्वास भी था कि मेरे मुँह से अपराधी शब्द निकला है तो कहीं कोई गडबड़ तो है। अगर यह निर्दोष है तो मेरे मुंह से अपराधी शब्द क्यों निकला और मेरे पास इसके अपराधी होने का कोई प्रमाण भी नहीं है। गुरूदेव कोई जवाब नहीं दे पाए। उन्होनें आंखे बन्द की और ध्यान में खो गए, मनन करने लगे।
सन्त जब आंखे बन्द कर बैठे थे तो उन्होने देखा कि उनके सामने एक तोता उडकर आया और वहाँ पर बैठ कर मीठू-मीठू बोलने लगा। गुरूदेव का ध्यान टूटा। उन्होने आँख खोली तो पाया कि वहाँ कोई तोता नहीं है। वो विचार में पड़ गए कि मैं तो इस कैदी के विषय में चिन्तन कर रहा था यह तोता एकदम कैसे आ गया। तोता ओर इसका क्या संबंध है। सन्त ने अचानक उस कैदी से पूछ ही लिया क्या तुम्हारे पास कोई तोता है? कैदी बोला हाँ है, मैने पाल रखा है। गुरूदेव के पूछने पर उसने बताया कि मैंने देखा एक पेड़ के कोटर में तोता व उसके बच्चे रह रहे थे मुझे यह तोता अच्छा लगा और मैं इसे पकड़ लाया। मैंने उसे शानदार पिंजरे में रखा है रोजाना इसे इसकी पसन्द की चींजे खिलाता हूँ, तोता बहुत खुश हैं। गुरूदेव ने कहा यह ही तेरा गुनाह है। सुन अगर वो तोता पिंजरे में खुश है तो जेलर सा. से फोन लेकर घर पर बात कर और पिंजरे को खोल अगर यह तोता खुश हैं तो वही रहेगा अगर नहीं तो उड़ जाएगा। कैदी ने ऐसा ही किया। पिंजरा खोलते ही तोता उड़ गया।
सन्त बोले यह ही तेरा कसूर था वो तोता अपने परिवार के साथ रह रहा था तूने उसे परिवार से अलग कर दिया, उसके बच्चे उससे अलग कर दिए। उस तोते को पिंजरे में शानदार भोजन नहीं चाहिए उसे परिवार व खुलापन चाहिए। तुझे भी तो यहाँ बिना कमाए दोनों समय का भोजन मिल रहा है। क्या तू यहाँ खुश है। कैदी बोला नहीं मुझें तो यहाँ से आजादी व परिवार चाहिए। और फिर तोते से मेरी सजा का क्या संबंध। सन्त बोले तोते की पीड़ा का अभिशाप तुझे लगा है। जिस प्रकार बेकसूर तोते को तूने सजा दी उसी प्रकार कर्म ने तुझे सजा दी और वो तुझे भोगनी ही पड़ेगी। इस संसार में हम जाने-अनजाने में ऐसे कितने ही अपराध कर देते है और जब उसकी सजा हमें मिलती है तो हम कहते है हमने कुछ नहीं किया हम तो बेकसूर है आदि-आदि। इसलिए किसी को छोटा-बड़ा मत मानो, कर्म बलवान है। किए की सजा तो मिलेगी ही किसी को तुरन्त किसी को बाद में। जिस प्रकार तेने निरपराधी जीव को परिवार से अलग किया उसी प्रकार कर्म (ईश्वर) ने झूठे केस में फंसाकर तुझे सजा दी है।
कैदी को अपने किए पर पछतावा था वह बोला गुरूदेव बताइए अब मैं क्या करूं, मुझे यहाँ से आजादी चाहिए, मुझे परिवार के साथ रहना है। सन्त ने उसे उपदेश देते हुए कहा देख कानून ने तुझे सजा दी है उसे तो भुगतना ही पड़ेगा। बस तू यहाँ रहकर भी अपने जीवन को परोपकार में लगा अपने किए पर पश्चाताप् कर अपने ज्ञान व शिक्षा का उपयोग इन कैदियों को शिक्शित करने में लगा। गुरूदेव ने पुनः सबसे कहा हम अपने खुशी के लिए कई बार किसी जीव को पकड़ते, मारते या नुकसान पहुँचाते हैं जबकि उसका कोई कसूर नहीं होता। इसलिए कभी किसी भी जीव को न मारे न ही सतायें। गुरूदेव अपना संदेश देकर वहाँ से रवाना हो गए। वह कैदी भी गुरूदेव के बताए अनुसार कार्य में लग गया। छः माह के अल्प समय में उसने सबका दिल जीत लिया। लगभग एक वर्ष हुए होगें। उसके जेलर ने उसे सूचना दी कि अपहरण के केस में किसी गुनहगार ने अपना जुर्म कबूला है और उसने बयान दिया है कि उसने द्वेषतावश तुम्हें फंसाया था। जिस कैदी को आजीवन कारावास की सजा मिली थी वो कैदी एक वर्ष में ही बाइज्जत बरी हो गया। उसने नेत्र बन्द कर गुरू महाराज को याद किया और अपने जीवन को सन्मार्ग पर लगाने की भावना व्यक्त की।
ऐसी घटनाएं हम जीवन में कई बार देखते है हमारे साथ भी ऐसा कई बार हुआ है। हम समाचार पत्रों में भी ऐसी घटनाएं पढ़ते, सुनते है जिसमें किसी को सजा मिलती है बाद में वो बरी हो जाता है। निश्चित रूप से उसने कभी न कभी किसी के साथ मन, वचन व कर्म से कोई अपराध किया होगा। अपराध छोटा हो या बड़ा सजा तो मिलेगी ही। जाने-अनजाने में किसी भी जीव को बेवजह तकलीफ न दें आपका किया कृत्य आपके पूरी परिवार के लिए कष्ट का कारण बन सकता है। जैसा कि उस कैदी के साथ हुआ।
— संजय कुमार जैन