ग़ज़ल
गुलशन का आज कैसा मंजर है जरा हट के
दिखता कली के हाथ में पत्थर है जरा हट के
इक आग़ सी लगी है दोनों तरफ ऐ ज़ानिब
इक ज़ख्म है इधर तो कुछ दर्द जरा हट के
दहशत का है ये आलम क्यूँ हर तरफ़ वतन में
हर शख़्स ख़ौफ़ में ख़ुद साये में ज़रा हट के
बनने को आफ़ताब इक नाक़ाम कोशिशें हैं
मिट्टी के ऐ चराग़ो तुम बुझना ज़रा हट के
शोलों की ज़द में देख ले तेरा भी आशियाँ है
मुफ़लिस की बस्तियों को जलाना ज़रा हट के
कर देंगी नाम रौशन माँ बाप का जहाँ में
परवाज़ दे के देखो बेटों से ज़रा हट के
लड़ने से बाज आ तू मज़हब के ठेकेदारो
नफ़रत का बीज़ मुल्क़ में बोना ज़रा हट के
गहरी बहुत जड़े हैं मेरी पाक़ मोहब्बत की
सौ बार सोचना फ़िर ज़ख़्म देना ज़रा हट के
— मणि बेन द्विवेदी