कलम
जब विचार कविता का आकार लेने लगते हैं,
तब कलम होकर पैनी, तलवार बनने लगती है
बगैर एक बूंद रक्त बहाये, अपना काम करने लगती है
जब जुल्म – सितम की आँधियां कहर ढाने लगती हैं,
तब किताबें ढ़ाल बनकर सुरक्षा देने लगती हैं
द्वार प्रगति के खोलकर,गुलामी की बेडियां तोडने लगती हैं
तुम पढ़ो तो सही क्रांति का इतिहास अमर,
निबलों-विकलों के अंदर भी वीरता जन्म लेने लगती है
कहानी शौर्यभरी खुद-ब-खुद बनने लगती है
सभ्यतायें जितनी भी हैं अगर अमर तो कलमों के बल से,
परिवर्तन लाती हैं कलमें, बस बिकें न सिक्कों की खनक में
जिंदा रखना ईमान, कहीं खो न जाना झूंठी सनक में
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा