दान की महिमा
एक तपस्वी सन्त हैं। जिनकी त्याग, तपस्या व चर्या को देखकर न केवल उनके शिष्य वरन उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी उनके गुणों की महिमा का बखान करते नहीं सकते। उनके प्रति श्रृद्वा व भक्ति के कारण लोग उन्हें साक्षात् भगवान की उपमा से भी विभूशित करते हैं। क्योंकि इस युग में भी उन समान आचरण का पालन दुर्लभतम-दुर्लभ है।
सैकड़ों की संख्या में शिष्य वाले उन गुरू के शिष्य एक दिन बैठकर आपस में चर्चा कर रहे थे कि एक व्यक्ति जिसमें शरीर पर फटे-पुराने कपड़े थे, देखने में दरिद्र दिखाई दे राह था वहाँ आकर गिडगिडाने लगा। शिष्यों ने उससे पूछा क्या बात है? क्यों रो रहे हो? क्या चाहते है? वो व्यक्ति बोला मेरी स्थिति बहुत खराब है, खाने को कुछ भी नहीं है, काम भी नहीं है। परिवार की स्थिति जिस प्रकार की है। मन करता है आत्महत्या कर लू। शिष्यों ने जब इस बात को सुना तो उन्हें करूणा आई लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। उन्होंने कहा हमारे गुरू ऊपर कमरे में ध्यान मग्न हैं। कुछ समय पश्चात कमरा खोलेगे तब उनसे मिलना वे बड़े दयानिधान हैं। तुम्हारी मदद अवष्य करेंगे। वो व्यक्ति ऊपर कमरे के बाहर जाकर बैठ गया। शिष्य भी पीछे-पीछे ऊपर गए और कौने में छिप कर बैठ गए। उन्होने सोचा गुरू बाहर आऐगें। इसकी पीड़ा सुनकर पिघल जाएगें और इसे अमीर होने का मंत्र देगें, लक्ष्मी यंत्र आदि देगें। मंत्र को हम लोग भी सुन लेगें जिससे फिर कोई दुखियारा आए तो उसकी मदद कर सकें। कुछ देर इन्तजार करने के बाद सन्त कमरे से बाहर आए उन्होनें रोते गिड़गिड़ाते व्यक्ति को देखकर कहा-‘‘कहो क्या बात है? क्यों रो रहे हो?’’ उस व्यक्ति ने अपनी पीड़ा गुरू के सामने रख दी। उसे विष्वास था कि सन्त उसकी पीड़ा सुनकर उसकी मदद अवष्य करेंगे। उसे व उसके परिवार को मरने से अवष्य बचाएगें। उधर छुपे हुए शिष्यों को भी विष्वास था कि गुरू उस व्यक्ति की पीड़ा का निदान अवष्य करेंगे। गुरू ने सारी बात को सुना फिर कहा-‘‘अच्छा स्थिति खराब है, काम भी नहीं है। ठीक है ‘‘जाओ दान करों’’। उस व्यक्ति ने सुना हाथ जोड़े और सिर झुकाकर रवाना हो गया। छुपे हुए शिष्यों ने सुना तो उन्हें कानों पर विष्वास नहीं हुआ। वे सोच में पड़ गए। ये कैसे गुरू है। हम तो सोच रहे थे ये उस आदमी की मदद करेंगे, उसे अमीर होने का मंत्र देगें, पर इन्होनें तो उसकी मदद करने की जगह उसे दान देने को और कह दिया। अगर इसकी दान देने की क्षमता होती तो क्या यह मदद मांगने आता और हां यह भी कैसा मुर्ख कुछ कहने की जगह सर झुकाकर चला गया। उधर शिष्य तनाव में कि हमने तो गुरू की महिमा को सुन रखा था कि ये दयानिधान है, ज्ञानी हैं, दयालु हैं, परोपकारी हैं। पर इनमें तो इनमें से एक भी गुण दिखाई नहीं दिया। कहीं हमने गलत नम्बर तो डायल नहीं कर लिए। हमने गलत गुरू तो नहीं चुन लिए आदि-आदि।
दोपहर में गुरू के सानिध्य में कक्षा लगती थी जिसमें सभी शिष्य बैठकर शास्त्रों का अध्ययन करते थे। पर आज किसी भी शिष्य का मन नहीं था। वे बीच-बीच में प्रष्न करने लगे कि-‘‘गुरू कैसा होना चाहिए? गुरू के गुण क्या है?’’ सन्त सोच में पड़ गये कि अध्ययन तो किसी अन्य विषय पर कराया जा रहा है और ये प्रष्न अन्य विषय पर कर रहे है। इनके चेहरे पर भाव भी अलग प्रकार के ही है। आखिर मामला क्या है? शिष्य कोई अन्य प्रष्न पूछते इससे पहले ही गुरू ने पूछ लिया-अरे भई क्या मामला है? जिस प्रकार के प्रष्न तुम्हारे द्वारा पूछे जा रहे हैं उसके अनुसार तो ऐसा लगता है कि आज तुम्हारा अध्ययन में मन नहीं है। एक शिष्य बोला गुरूदेव क्या खाक पढ़ने में मन लगेगा। आप के पास आज जो व्यक्ति आया था उसकी स्थिति वैसे ही बहुत खराब थी, खाने को उसके पास एक दाना भी नहीं था, वह पूरे परिवार सहित आत्महत्या करने जैसी स्थिति में था। ऐसे में आपने उसे कुछ देने अथवा मदद करने की जगह दान देने का आशीर्वाद और दे दिया। अगर उसकी दान देनेकी स्थिति होती तो वह यहाँ क्यांे आता। सभी शिष्यों ने सहमति भरी दृष्टि से गुरू को देखा। गुरू ने उनकी बात को सुना, मौंन धारण किया, फिर बोले-अच्छा यह बात है। तुम चाहते हो कि मैं उसकी मदद करवाता। सबने कहा हाँ। गुरू बोले-क्या तुम चाहते हो मैं उस व्यक्ति के लिए पैसा एकत्रित कर उसे दिलवाता। पर बताओ वह इससे कितने दिन निकाल लेता और फिर अच्छेखासे व्यक्ति को भिखारी बनाकर क्या मैं उसके साथ न्याय कर पाता। क्या भीख से गुजर बसर करने वाला व्यक्ति स्वयं अपनी नजर में नहीं गिर जाता।’’ पर शिष्य कहाँ शान्त होने वाले थे वे फिर बोले-आप ऐसा नहीं कर सकते तो फिर उसे कोई लक्ष्मी यंत्र या मंत्र ही दे देते जिससे उसकी दरिद्रता दूर हो जाती और वह दान आदि देने लायक भी हो जाता। गुरू ने सुना और जवाब दिया कि मंत्र-तंत्र का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना उपयुक्त नहीं है। फिर मंत्र- तंत्र मुझे आते भी नहीं।’’ शिष्य बोले तो फिर दान करो। ऐसा कहने की आवष्यकता क्या थी। गुरू बोले सुनो-आपको पता है उसकी स्थिति इस प्रकार कैसे बनी। वह पूर्व जन्म में निष्चित रूप से सम्पन्न परिवार से रहा होगा, जिसके पास धन-धान्य की कोई कमी नहीं रही होगी लेकिन उसने अपने धन का उपयोग मौज-मस्ती, राग-रंग में किया होगा। कभी किसी सत्कार्य में अपने धन को नहीं लगाया होगा। इसी का श्राप इसे लगा है और आज इसकी यह स्थिति हुई है। इसलिए मैंने इसे उपदेष दिया। पर शिष्य कहाँ मानने वाले थे वे तो भरे हुए थे। गुरू ने उन्हे समझाया और कहाँ आज का अध्ययन खत्म। अब कल चर्चा करेंगे। बात आई-गई हो गई।
छः-आठ माह बीते होगें सभी शिष्य सुबह व्यक्तिगत अध्ययन कर रहे थे। उन्हे एक व्यक्ति सूट-बूट में परिवार सहित आता दिखाई दिया। सबने उसे पहचान लिया कि अरे यह तो वही है जो……………….। पर इसकी स्थिति तो बदली हुई है। शिष्यों ने सोचा यह हमें प्रणाम करेगा, कहेगा…………..। लेकिन उसने तो उन्हें देखा भी नहीं। सीधा गुरूदेव के कक्ष की ओर चला गया। सभी शिष्यों को भी कोतूहल हो गया कि यह क्या मामला है और वे भी चुपके-चुपके उसके पीछे हो लिए। वह आदमी सीधे गुरू के कक्ष में गया। गुरू को नमन किया। सन्त उसे पहचान गए और बोले-‘‘दान आदि कर रहे हो या………………..।’’ वो बोला गुरूदेव मैं आपकी बात को न तो भूला हूँ और न ही भूलूंगा। मैं छ-आठ माह पूर्व जब आपके पास आया था। उस समय मेरे पास कुछ भी नहीं था मेरी मरने की सी स्थिति थी। उस स्थिति को देखकर भी आपने कहा था कि-‘‘दान करो’’ और मैंने उस बात को स्वीकार किया क्यों कि मैं जानता था और मैंने आपके विषय में सुन रखा था कि सन्त के मुंह से जो निकल गया वो अवष्य पूरा होगा। अगर गुरू ने कहा है कि दान करो तो इसका मतलब हैं मैं इस लायक बनूंगा और मैंने ऐसा ही किया। गुरू की आज्ञा को प्रमाण मानकर मैंने काम शुरू किया जो बचता उसका एक बड़ा हिस्सा मैं सत्कार्य में अथवा सत्पात्र को दान देने में लगाता। आज उसी का प्रतिफल है कि मैं व मेरा परिवार इस लायक बने हैं। मैं आज हर दृष्टि से सक्षम हूँ। पूरा परिवार प्रसन्न है। मैं आपके कहे की पालना हमेशा करूंगा। यह ही वचन देने व आशीर्वाद लेने मैं आपके पास आया हूँ। सन्त मन्द-मन्द मुस्कराए और हाथ उठाकर उसे आशीष दिया। शिष्यों ने जब यह देखा व सुना तो वे ग्लानि व शर्म से पानी-पानी हो गए। उन्होने अपने तब के व्यवहार के लिए गुरू से क्षमा याचना की।
गुरू मुस्कराए और बोले हर व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार फल पाता है आपने जो किया हैं उसका फल तो आपको भोगना ही पड़ेगा। कभी तुरन्त हो कभी बाद में। गरीब की सहायता पैसा या अन्य सुविधा देकर नहीं की जा सकती। इससे उसकी गरीबी कभी दूर नहीं होगी वो वैसा ही बना रहेगा। सहायता अथवा भीख पर पलने वाले का क्या कभी कल्याण हुआ है। अगर ऐसा होता तो गरीबी कभी भी मिट चुकी होगी। हम सहायता देकर उसे नाकारा बना रहे हैं। इसकी जगह उसे लायक बनाओ साथ ही मंत्र-तंत्र करने वालो से दूर रहो क्या इससे कभी किसी का भला हुआ है। डाँक्टर किसी बिमार व्यक्ति को देखकर ही उसे दवा दे देता है या पहले उसकी बिमारी के कारणों को खोजता है। कारण देखकर दवा देने पर ही मरीज का ईलाज सम्भव है। इसलिए मदद से पहले व्यक्ति की दषा के कारणों का पता लगाया जाना चाहिए और मैंने वह ही किया। सन्त बोले दान की बहुत बडी महिमा है। हर व्यक्ति को सत्कार्य, सद्मार्ग व सत्पात्र को अपनी क्षमतानुसार दान देना ही चाहिए। आप दोगें तभी तो आपको मिलेगा। दान किसान द्वारा खेत में बीज डालने के समान है। दान रूपी बीज बोओगें तभी तो फसल रूपी सम्पदा मिलेगी और उस व्यक्ति के साथ ऐसा ही हुआ।
सभी शिष्यों ने गुरू की दूरदृष्टि व भावना को सराहते हुए आभार व्यक्त किया।
— संजय कुमार जैन