आभार की अपेक्षा
जिनकी वाणी से साक्षात् अमृत बरसता है जो सुधा के सागर हैं, विद्या का ज्वार जिनके अन्तस में समाया हुआ है। जिनके त्याग व तपस्या का कोई सानी नहीं है। ऐसे महान दुर्लभ सन्त ने एक बार अपने प्रवचनों की श्रंृखला में से भक्तों को सम्बोधित करते हुए कहा कि अपने से बड़ों या किसी के भी प्रति आपने कोई उपकार किया है तो उसके बदले में आभार की अपेक्षा मत रखों अर्थात् यह भावना कभी मत रखो कि अब यह मेरा आभार मानेगा। मेरा आभार व्यक्त करेगा। बल्कि यह भावना रखो कि यह मेरा शौभाग्य था कि उनके कारण मुझे सेवा का अवसर मिला। मुझे किसी भले कार्य का अवसर मिला।
सन्त के वचनों को सुनकर कुछ लोगों ने प्रश्न किया कि गुरूदेव ऐसा थोड़े होता है कि हम किसी का उपकार करें और आभार की भी अपेक्षा न रखें। गुरू ने विभिन्न दृष्टान्तों से भक्तों को समझाया कि कही कारणों से हमें छोटों के साथ-साथ बड़ों की भी सहायता, मदद अथवा उन पर उपकार करना पड़ जाता है। उसे यह सोचकर करना कि यह उनकी (गुरू अथवा बड़े लोगों की) हम पर बहुत बड़ी कृपा है जो उन्होने हमे इस योग्य माना या बनाया। कभी आभार की भावना मन, वचन कर्म में मत रखना। अगर आपकी आभार चाहने वाली भावना है तो आपका सब करा कराया व्यर्थ हो जाएगा और गुरू भी वही महान् है जो भक्तों का अथवा उपकारी का आभार व्यक्त न करें। अगर कोई गुरू आभार मानता है या व्यक्त करता है तो वह स्वयं अपने पद से स्वयं तो गिरेगा ही भक्त का भी सारा किया कराया पुण्य क्षय को प्राप्त हो जाएगा।
भक्तो की जिज्ञासा का समाधान करते हुए सन्त ने दृष्टान्त सुनाया कि एक महान तपस्वी साधु थें चूँकि वे दिन में (24 घन्टे में) एक बार निरन्तराय आहार (भोजन) करते थे जो भी उनकी अंजुली में आ जाता उसे पसन्द-नापसन्द का ख्याल न करते खा लेते। उन्हे रस अथवा स्वाद से कोई मतलब नहीं था वे खाने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए खाते थे। एक बार वे बिमार पड़ गए। भक्तों का पता चला तो उन्होने वेद्य की व्यवस्था की। चूँकि सच्चा सन्त अपनी पीड़ा किसी के सामने व्यक्त नहीं करते अतः वेद्य जी को सन्त के आहार के समय श्वासों को सूँघकर पता लगाना था कि उन्हे क्या बीमारी है और इस बीमारी का शमन कैसे होगा। कार्य कठिन था लेकिन वेद्य जी आयुर्वेद के बहुत बड़े जानकार थे उन्होने सन्त चेहरे व स्थिति को देखकर ही बीमारी का पता लगा लिया कि उन्हेे क्या तकलीफ है। अब उनके सामने यह समस्या थी कि गुरू को दवा कैसे दे क्यों कि सन्त तो दिन में केवल एक बार ही जल व आहार लेते थें। वेद्य जी ने अपने ज्ञान व क्षमताओं का उपयोग कर विशेष औषधी तैयार की और उस दवा को भोजन में मिलाकर सन्त को खिला दिया। दवा ने तुरन्त असर किया और दो-तीन खुराक में ही वे स्वस्थ हो गए। समाज ने वेद्य जी को सम्मानादि दिया। वेद्य जी गुरू के सामने आए और गुरू को सब कुछ बताया। सन्त सब कुछ सुनते गए, मुस्काए पर बोले कुछ नहीं। वेद्य जी आश्चर्य में पड़ गए कि मैने इनकी इतनी बड़ी बीमारी का ईलाज किया है। इनकी पीड़ा का शमन किया है और ये कैसे सन्त है कि इन्होने आभार में एक शब्द भी नहीं कहा। वेद्य जी को ऐसी उम्मीद नहीं थी उसे विश्वास था कि सन्त मेरी प्रशंसा करेंगे, मेेरा आभार मानेंगे सब के सामने मुझे …… आदि लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उन्हे बहुत क्रोध आया, दुःख भी हुआ वे गांठ (बेर) बांध कर वहां से रवाना हो गए।
कई बरस बीत गए। वे चिकित्सक महोदय मरकर बन्दर की पर्याय में जन्में। जंगल में रहते, पेड पर उछल-कुद करते। एक बार उक्त साधु का ऊधर से विहार करना हुआ। जब बन्दर की निगाह सन्त पर पड़ी तो उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया उसका बेर जाग गया। उसने एक पेड़ का तना जो आगे से नुकिला था तोड़ा और सीधा सन्त पर दे मारा जो उनकी जांघ पर लगा। संत को असहनीय पीड़ा हुई पर उनके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला वे आगे रवाना हो गए। बन्दर आश्चर्य में पड़ गया ये कैसे सन्त जो पहले भी कुछ नहीं बोले और न अब …। धन्य है ऐसे सन्त। वो बन्दर गुरू महाराज के चरणों में आ गिरा उसने सारी बात बताई और गुरू से क्षमा की याचना की। गुरू ने उसके सिर पर हाथ रखा और रवाना हो गए। बन्दर को अपने किए पर पछतावा था। उसने मनन किया मैंने बिना जाने यों ही सन्त के प्रति बेर बांधा। जब कि इन्हाने तो मुझे पतन में जाने से बचाने के लिए ही मेरे उपकार पर आभार न जताकर मेरे पर उपकार किया था। जो मेरे जीवन को तारने में सहायक था। क्यों कि मैने अच्छा किया था तो मुझे तो अच्छा मिलना ही था। यह बन्दर पश्चाताप की ज्वाला में चला गया और मरकर देव बना।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम कोई भी भले का कार्य करें उसे एहसान मानकर या किसी अपेक्षा से नहीं करें। बल्कि यह मानकर करें कि यह मेरा सौभाग्य था जो इन्होंने मुझे अवसर दिया अन्यथा लोग तो और भी थे। हम किसी दिव्यांग, गरीब या जरूरत मंद पर कभी कोई उपकार करें तो एहसान या आभार की भावना ना रखें। अरे हमने अच्छा किया है तो हमें अच्छा मिलेगा ही। ‘‘जैसा करोगे-वेसा भरोगे’’ कहावत ऐसी ही नहीं बना।
आज देखने में यह आता है कि हम किसी पर थोड़ा भी उपकार या मदद कर दें तो उसे ऐसा प्रदर्शित करते है जैसे पहाड़ तोड दिया। हर कार्य को अपना सौभाग्य मानकर करो। यह बात राजा और प्रजा सब पर लागू होती है। राजा भी कोई कार्य जनहित में करता है तो उसे आभार की भावना जो कि बहुत बड़े स्तर पर देखी जाती है नहीं करनी चाहिए। बल्कि यह मानना चाहिए कि यह तो मेरा शौभाग्य था कि मैं आज इस स्थान पर पहुँचा और ये लोग धन्य है जिनके कारण मुझे यह अवसर मिला। आज जिस प्रकार छोटा भी कार्य कर जिस प्रकार आभार व्यक्त करवाने के बड़े-बड़े कार्यक्रम करवाए जाते है, प्रदर्षन किया जाता है उन्हें अपने परिणाम की कल्पना कर लेनी चाहिए। गुरू अपनी बात कहकर भक्तों को सन्मार्ग का उपदेष देकर रवाना हो गए।
— संजय कुमार जैन