सामाजिक

लेख– जब तक समाज महिलाओं को हिक़ारत भरे नजरिए से देखता रहेगा, महिलाओं की दशा समाज में सुदृढ़ नहीं हो सकती।

ऐसा माना जाता है, शिक्षा व्यक्ति को बेहतर बनाती है, और दूसरों के प्रति संवेदनशील। शिक्षित समाज देश को नित्य नई ऊंचाइयों पर ले जाता है, लेकिन हमारे देश की सबसे बड़ी दुःखती रग यह है, कि साक्षरता दर भले बढ़ रहीं है, पर समाज अपनी सामाजिकता को घोर कर पीने पर उतारू दिखता है। समाज इतना असंवेदनशील और हवसी होता जा रहा है, कि उसने सामाजिकता को ही तिलांजलि नहीं दे रहा, बल्कि उसने रिश्ते-नाते की बनी-बनाई व्यवस्था को भी तार-तार कर रहा है। नैतिकता औऱ सामाजिक परिवेश की जगह हवस औऱ जंगलीपन समाज पर हावी होता दिख रहा है। हमारा वर्तमान परिवेश अपने अतीत को नहीं देखना चाहता, इसलिए समाज आज ऐसे चौराहें पर आ खड़ा हुआ है। जहां से अपनापन औऱ आपसी प्रेम और भाई चारे की जगह हवस औऱ नंगाईपन समाज पर हावी होता जा रहा है। बढ़ते पश्चिमीकरण की वज़ह से भी देश की संस्कृति औऱ सामाजिक परिवेश दूषित हो रहा है। जिस संस्कृति औऱ सभ्यता में स्त्रियों और बेटियों को पूजनीय माना जाता रहा है। आज उसकी अस्मिता और इज़्ज़त के साथ खिलवाड़ हो रहा है। मतलब समाज से अपनी सारी संस्कृति, सभ्यता औऱ मर्यादाओं को तास के पत्तों की भांति ढहा दिया है।

स्वामी विवेकानंद से विदेश में उनकी पगड़ी और भगवा वस्त्र को देखकर सवाल पूछा जाता है, कि आपके बाक़ी वस्त्र कहाँ हैं, तब स्वामी जी उत्तर देते हैं, कि हमारे पास बस यहीं है, जो कुछ है। हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से अलग है। आपकी संस्कृति का निर्धारण दर्जी करता है, बल्कि हमारी संस्कृति का निर्धारण हमारा चरित्र करता है। हम उस महान संस्कृति के संवाहक है, लेकिन आधुनिकता के नाम पर हमनें अपने सामाजिक मूल्यों औऱ संस्कृति को बेचने का काम किया है, जो सही नहीं। ऐसे समाज का क्या अर्थ जिसमें नवजात बच्चियां औऱ छोटी-छोटी बच्चियों को भी का हवस का शिकार बनाया जाता हो। फ़िर व्यर्थ की ढकोसले बाजी क्यों। एक तरफ़ कन्या पूजन किया जाता है, दिखावे के लिए कहा जाता है, यत्र नारी पूजन्यते तत्र देवता रमन्ते। जब अपनी हवस और दरिन्दगी पर समाज काबू पा नहीं पाता। फ़िर ये सभी परिभाषाएं औऱ उद्धरण भोथरी बातें समझ में आती हैं। समाज में आए दिन एकाध बच्ची के साथ निर्भया जैसा सलूक हमारा समाज करता है। वही समाज जिसको लेकर हम अपनी पीठ थपथपाते हैं, कि वह उन्नतशीलता की तरफ़ अग्रसर है, शिक्षित हो रहा है। ऐसा समाज किस काम का, जो बहन-बेटियों को ही हवस की नज़र से देखता हो। ऐसे में लगता तो यहीं है, देश का आंतरिक अंग औऱ व्यवस्था बुरे तौर पर फट गई है। हम स्वाभिमान औऱ वैश्विक परिवेश को दिखाने के लिए कितना भी इतरा ले। साथ में हम राजनैतिक राष्ट्र के रूप में चाहे कितना भी सशक्त क्यों न हो जाए, हमारा राष्ट्र सामाजिक रूप में खोखला होता जा रहा है।

जिसका अस्थि-पंजर निकलता जा रहा है। जिसमें सुधार की कोई हवा बहती दिखाई नहीं पड़ती। हमें समझना होगा, राजनीति समाज का एक छोटा सा स्वरूप मात्र है। हम मात्र राजनीतिक व्यवस्था की सफ़लता पर इतरा नहीं सकते। समाज के सर्वांगीण विकास के लिए नैतिकता औऱ सामाजिक वातावरण को बचाना ज़रूरी है। आज हम जिस युवा शक्ति पर नाज़ करते हैं, अगर वह अपराध औऱ अश्लील कृत्यों में सम्मिलित है, निहितार्थ पूर्ण रूप से साफ़ हैं। गलत संगति, औऱ अभिवावकों द्वारा ध्यान न देना औऱ सोशल नेटवर्किंग साइट्स इन युवाओं में अश्लील विचार भरने की वाहक बन रही है। जिसके दो दुष्परिणाम समाज को झेलने पड़ रहें हैं। एक तो सामाजिक नीव कमज़ोर हो रहीं है, औऱ दूसरा नैतिकता के अभाव में सामाजिक रिश्ते-नाते तार-तार हो रहे हैं। हरियाणा में सिर्फ़ लिगांनुपात ही कम नहीं है। हमारी सामाजिक सोच किस तरीके से घुटने में सीमित होती जा रहीं है, उसकी बानगी हरियाणा की घटनाएं व्यक्त करती है। जो सम्पूर्ण देश की तस्वीर भी खिंचती है। महज़ चार दिनों के भीतर हरियाणा में दिल को दहला देने वाली तीन सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं समाज की रुह को कंपा देने के लिए काफ़ी है, लेकिन न समाज जाग पा रहा है, न व्यवस्था अपनी निंद्रा से उठने को तैयार दिखता है। फ़िर ऐसे में देश की बहन-बेटियां कैसे सुरक्षित रहेंगी, यह ज्वलंत प्रश्न बनकर सामाजिक व्यवस्था के सामने खड़ा हो जाता है।

यह घटना समाज को स्तब्ध ही नहीं करती सरकारी कार्यप्रणाली औऱ कार्यक्रमों की अस्थि विसर्जित करती हुई दीप्तमान होती है, क्योंकि 2015 में बेटी बचाओं औऱ बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरुआत हरियाणा से हुई थी। ये घटनाएं सरकारी कार्यक्रमों का जनाज़ा निकालने के साथ यह प्रदर्शित करती है, कि राज्य में बेटियां कितनी सुरक्षित हैं? पहली घटना जींद से आई, जिसमें एक 15 वर्षीय लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म कर उसे मार दिया गया। यह घटना सामाजिक संवेदना को झकझोर कर रख देती है, क्योंकि न सिर्फ़ किशोरी के साथ दुष्कर्म किया गया, बल्कि उसके शरीर में 20 से अधिक ज़ख्म भी किए गए। यह देश की बहन-बेटियों की अस्मिता के साथ अन्याय ही कहा जाएगा, क्योंकि निर्भया कांड के बाद मृत्युदंड का कानून लाने के बाद भी बहन-बेटियां सुरक्षित नहीं है। दूसरी घटना पानीपत की है, जहाँ किशोरी के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या का मामला सुर्खियों में आया। जिस मामले में क़रीबी रिश्तेदार को गिरफ़्तार किया गया है। तीसरी घटना फरीदाबाद की है, जहां घर लौटती एक 22 वर्षीय युवती को अगवा कर उसके साथ दुष्कर्म करके उसे सुनसान इलाके में फेंक दिया जाता है। ये घटनाएं प्रदेश में महिला सुरक्षा की स्थिति को बयाँ करने के लिए काफ़ी हैं। मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट्स के मुताबिक लैंगिक असमानता में बदनाम हरियाणा राज्य में कुछ सुधार तो हुआ है, क्योंकि 2013 में जहां राज्य में लिंगानुपात 868 था। वह 2017 में 914 तक पहुँच गया है। पर पिछले वर्ष की पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिदिन चार दुष्कर्म की घटनाएं प्रदेश में होना बताता है, कि हवसी होते समाज की बुद्धि कुंद पड़ गई है। सामाजिकता को तहस-नहस करने वालों को न पुलिस का भय बचा है, न कानून का। ऐसे में अगर राजनीतिक व्यवस्था औऱ समाज अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेगा, तो बेटी बचाओ औऱ बेटी पढ़ाओ सिर्फ़ कागज़ पर ही सिमट कर रह जाएगा।

इसके साथ हरियाणा में बच्चियों के साथ हुई हैवानियत को हम किस श्रेणी में रखेंगे। शायद विकासवाद के चश्मे से नहीं देखी जा सकती। औऱ न ही सुरक्षित समाज के हिस्से मढ़ी जा सकती हैं। समाज मे ऐसे कृत्य होने के बाद इंसाफ़ की पुकार लगाई जाती है, लेकिन पहले से क्यों कोई पहल नहीं की जाती, कि ऐसी दिल दहला देने वाली घटना से समाज को रूबरू न होना पड़े। यह मलाल दिल में रह जाता है। दिल्ली में हुई घटना के बाद सामूहिक आवाज़ मुखर हुई थी, तब बेटियों की सुरक्षा की बात शासन व्यवस्था ने भी कबूली थी, लेकिन अब तक क्यों सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव नहीं आया ? क्यों समाज से पुरुषवादी मानसिकता नहीं उतर रही? क्यों दूषित मूल्यों को मततंत्र की ख़ातिर राजनीति ढो रहीं है? आख़िर समाज कब तक मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था के चंगुल में फंसा रहेगा, औऱ स्त्रियों की अस्मिता और अधिकारों के साथ समाज खेलता रहेगा। इसका जवाब समाज को देना होगा।

यह आधुनिक होते समाज का दुर्भाग्य है, कि उसकी सोच दिन- ब- दिन नीचे गिरती जा रहीं है। नीति-नियंता बन बैठे लोग जब महिलाओं को ही उनके साथ हो रहें असामाजिक कृत्य के लिए दोष देना शुरू कर देते हैं, तो आत्मा दुःखित हो उठती है। अब वक्त पुकार रहा है, कि समाज अपनी सोच में परिवर्तन करें। इसके साथ सियासतदां भी आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का मनोबल बढ़ाने के बजाय ऐसे कानूनी प्रावधान की तरफ़ बढ़े, कि महिलाओं और बच्चियों के साथ ग़लत व्यवहार करने वालों की रूह कांप उठे। महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए लोकतांत्रिक-वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना होगा। इसके साथ महिलाओं को अधिकार भी प्रदान करने होंगे। महिलाओं को 33 फ़ीसद आरक्षण मिलना चाहिए? सिर्फ़ कानून की पिपहारी बजा देने से स्थिति में बदलाव नहीं आने वाला। जब तक कड़ाई से उसका अनुपालन नहीं होगा। पारिवारिक, सामाजिक, प्रशासनिक औऱ कानूनी स्तर पर महिला उत्पीड़न और दुष्कर्म की घटनाओं से निपटने की आवश्यकता है। सिर्फ़ फास्टट्रैक कोर्ट का गठन काफ़ी साबित नहीं हो रहा, दुष्कर्म के मामले रोकने में। अपराधियों को फांसी के फंदे का डर दिखाना होगा। चीन, अफगानिस्तान औऱ सऊदी जैसे देशों में महिलाओं के खिलाफ अपराध करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है, तो क्यों न हम उनसे कुछ सीख ले? अगर बच्चियों का क़सूर सिर्फ़ इतना है, कि वे घर से बाहर पढ़ने, कूड़ा फेंकने आदि के लिए निकल रही हैं। तो फ़िर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, इन बच्चियों की उम्र कुछ भी हो। यहीं कहा जा सकता है, कि इतने वर्षों में कुछ नहीं बदला, तो वह है महिलाओं को हिक़ारत की नज़र से देखने की प्रवृत्ति। कन्याभ्रूण हत्या हो, कुपोषित बच्चियों को ईलाज मयस्सर न होना हो, समाज में लड़कियों को लड़कों से कमतर आंकने की प्रवृत्ति हो। अब समाज को अपनी इस सोच में परिवर्तन लाना होगा। इसके साथ मध्ययुगीन राजनीतिक औऱ सामाजिक मूल्यों को तिलांजलि देना होगा, तभी बेटियों को बचाया जा सकता है, औऱ तभी समाज में लैंगिक समानता लाई जा सकती है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896