गीत – कवि नहीं हूं
कवि नहीं हूं, ना मैं लेखक ना कोई रचनाकार हूँ
दिल में उठते भाव बताने का मैं तलबगार हूँ
नैनों से मैं जो भी देखूं दिल में है तसवीर उतरती
बचपन भूखा है सड़कों पर यौवन जीते जी है मरती
वही गरीबी और मुफलिसी देखके मैं बेजार हूँ
दिल में उठते भाव बताने का मैं तलबगार हूँ
जाति पांति और ऊंच नीच का खेल गजब है सारा
धर्म अधर्म ही करता अक्सर लाखों इंसां मारा
देख के धर्म के ठेकेदारों को मैं शरमसार हूँ
दिल में उठते भाव बताने का मैं तलबगार हूँ
खा खाकर कोई मरे कोई यहां भूख भूख चिल्लाए
सांस टूट जाये पर दाना अन्न का नहीं वो पाए
राजनीति होती है मौत पे मैं ही कसूरवार हूँ
दिल में उठते भाव बताने का मैं तलबगार हूँ
महंगी गाड़ी में घूमते हैं, सेठ भरें फर्राटा
पेट पीठ में धंसी हुई है वो मारे खर्राटा
करवट बदल बदल कर सोये नींद का मैं बीमार हूँ
दिल में उठते भाव बताने का मैं तलबगार हूँ
( तर्ज ..क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे , नकली चेहरा सामने आए असली सूरत छिपी रहे …)
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, यथार्थ को बयान करता हुआ आपका गीत बहुत खूबसूरत और नायाब लगा. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय बहनजी ! ऐसे ही वरदहस्त बनाये रखियेगा यही आकांक्षा व निवेदन है । अति सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद !