राजनीति

क्या हम भी इजराइल की तरह बन सकते थे

इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की छःदिवसीय यात्रा से भारत और इजराइल के इतिहासों के पन्ने अपनेआप फड़फड़ाकर जब उलटने लगे, तो बहुत से विचारों ने प्रश्नों के रुप में उमड़ना घुमड़ना शुरु कर दिया। भारत और इजराइल दोनों के वर्तमान जन्मों की कहानी में काफी समानता दिखती है, दोनों अपने मूलराष्ट्र के बंटवारे के टुकड़ों को स्वरुप देकर आज यहां पहुंचे हैं। दोनों की सत्तर वर्षीय जीवनयात्राओं में बहुत कुछ समानताएं हैं, तो वहीं बहुत से ऐसे पहलू हैं, जो सोचने को विवश करते हैं कि क्या भारत ने भी वही किया होता जो इजराइल ने अपनाया, तो हम भी आज सर्वोच्चता के उसी शिखर पर होते, जहां इजराइल है।

इतिहास जो भी हों, तीन बातों पर विचार बहुत जरुरी लगता है, वे हैं अपने लोग, अपनी भाषा और अपना देश। इजराइल ने इन तीनों को पर्याप्त अहमियत दी, शायह हमने उतनी नहीं जितनी आवश्यक थी, इसलिए आजतक इन तीनों को हम अपना कह नहीं पाए। इजराइल स्वतंत्र हुआ तो सबसे पहले संविधान में कहा गया कि जो भी यहूदी दुनिया के किसी भी कोने में है, उसे इजराइल की नागरिकता स्वतः प्राप्त है। बस आश्वस्त हो गया हर यहूदी। हमने अपनों की तरफ ऐसी किसी चाहत को अहमियत देने का विचार ही नहीं किया। हम तो देश के अंदर ही अपनों को खो रहे थे, उस समय कहीं मन में तनिक भी नहीं रहा होगा कि ब्रिटिशों ने अपने शासनकाल के दौरान जिन जिन भारतीयों को दास बना बनाकर दुनिया में फेंक दिया है, वे कभी लौटना चाहेंगे ससम्मान अपने देश की नागरिकता के साथ। अपने देश के नागरिक होने की आश्वस्ति की अहमियत वही जान सकता है, जो बेमन से दूसरे देश में रह रहा है या रहने को मजबूर है या वे जो विश्व में कहीं कोई अस्तित्व नहीं रखते हैं, बस देह रुप में पृथ्वी के अन्य जीवों की तरह प्राणिमात्र हैं। आज हम कितने भी दम्भ भरते रहते हैं कि विश्व के कोने कोने में भारत बसा है, पर क्या वो सही मायनों में अपनेपन के साथ बसा है, यह गम्भीर विश्लेषण का विषय है।

दूसरा पहलू है, अपनी भाषा, जो इजराइल ने दिलेरी के साथ आत्मसात की। अपनी भाषा हिब्रू को पुनर्जीवित कर हर इजराइली ने साबित किया कि भाषा सिर्फ स्वर या व्यंजन नहीं है, वह उन भावों की अभिव्यक्ति है, जो देश को भी राष्ट्रीयता की भावना से जोड़ने के लिए विशेष अहमियत रखती है। हम स्वतंत्र हुए और भाषाओं के फेर में पड़ गए, किसे राजभाषा बनाए, एक को बनाएंगे तो दूसरा रुठेगा, इस प्रपंच में पड़कर अपनी भाषाओं को धता बताकर विदेशी भाषा को जो अहमियत दी, उसका खामियाजा भाषिक परतंत्रता के रुप में ऐसे भुगत रहे हैं कि अपनी ही हिन्दी और अपनी ही मातृभाषाओं को विमाता के सामने लज्जित करने में गौरव महसूस करते हैं। कहीं दूर जाने की जरुरत तो है ही नहीं, इजराइल के प्रधानमंत्री के स्वागत में बनाए पोस्टरों मॆं अपनी भाषाएं नदारत हैं, इससे बड़ा भाषाई अपमान और क्या होगा। शलोम बोल लेने से हम इजराइल का स्वागत कर रहे हैं, पर हमारी हिन्दी पोस्टरों में स्वयं को खोज रही है, नामपट्टिकाओं में स्वयं को ढ़ूढ़ते रह जाओगे की परिस्थितियों में स्वयं को ठगा सा महसूस कर रही है। सिर्फ संविधान की धाराओं में राजभाषा से संतोष करने वाली हिन्दी ने अपने ही देश में बहुत अपमान सहा है।

तीसरी बात अपने देश की आती है, जिसे इजराइल की जनता ने कितना अपना समझा है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि वहां का हर नागरिक बिना किसी लिंगभेद के राष्ट्रसेवा के लिए सेना में भर्ती होने के लिए प्रतिबद्ध है। इजराइल की सीमाएं स्वयं को कितना सुरक्षित महसूस करती हैं। हमारी सीमाएं घुसपैठों के दंश से रक्तरंजित हैं और शहीदों के बोझ से दबी जा रही हैं। हम देश को कितना अपना समझते हैं, इसके आंकड़े फेहरिस्तों में हैं, पलायनवादी भारतीय मनीषियों से लेकर राष्ट्रगान के लिए चंद सेकंड न देने वाले हम लोग अपने ही जवानों की राष्ट्रनिष्ठा पर संदेह करते लज्जा अनुभव नहीं करते। परम्पराओं, पर्वों और सभ्यताओं को भुला बैठे हम भारतीय देश के मायने ही भूलते जा रहे हैं। भ्रष्टता और विरोध की राजनीति ने हर भारतीय के सोचने समझने की शक्ति को प्रदूषित कर दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अतिरेकों ने कुतर्कों को जन्म दिया है और लड़ रहे हैं हम अभद्र और अमर्यादित भाषाओं के साथ। लेकिन इन संवादों में देश कहीं नजर नहीं आता।

निष्कर्षतः यही कह सकते हैं कि जब तक भारत में जनता, भाषा और राष्ट्र अपनत्व के सही मायने नहीं अपना लेता, तब तक भारत सही राष्ट्र नहीं बन पाएगा। हर नागरिक से सिर्फ एक स्वस्थ और परिपक्व सोच की आशा ही रखी जा सकती है। कभी तो सद्बुद्धि आएगी।

डॉ. शुभ्रता मिश्रा

डॉ. शुभ्रता मिश्रा वर्तमान में गोवा में हिन्दी के क्षेत्र में सक्रिय लेखन कार्य कर रही हैं । उनकी पुस्तक "भारतीय अंटार्कटिक संभारतंत्र" को राजभाषा विभाग के "राजीव गाँधी ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन पुरस्कार-2012" से सम्मानित किया गया है । उनकी पुस्तक "धारा 370 मुक्त कश्मीर यथार्थ से स्वप्न की ओर" देश के प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है । इसके अलावा जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली) द्वारा प्रकाशक एवं संपादक राघवेन्द्र ठाकुर के संपादन में प्रकाशनाधीन महिला रचनाकारों की महत्वपूर्ण पुस्तक "भारत की प्रतिभाशाली कवयित्रियाँ" और काव्य संग्रह "प्रेम काव्य सागर" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताओं को शामिल किया गया है । मध्यप्रदेश हिन्दी प्रचार प्रसार परिषद् और जे एम डी पब्लिकेशन (दिल्ली)द्वारा संयुक्तरुप से डॉ. शुभ्रता मिश्राके साहित्यिक योगदान के लिए उनको नारी गौरव सम्मान प्रदान किया गया है। इसी वर्ष सुभांजलि प्रकाशन द्वारा डॉ. पुनीत बिसारिया एवम् विनोद पासी हंसकमल जी के संयुक्त संपादन में प्रकाशित पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न कलाम साहब को श्रद्धांजलिस्वरूप देश के 101 कवियों की कविताओं से सुसज्जित कविता संग्रह "कलाम को सलाम" में भी डॉ. शुभ्रता की कविताएँ शामिल हैं । साथ ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में डॉ. मिश्रा के हिन्दी लेख व कविताएं प्रकाशित होती रहती हैं । डॉ शुभ्रता मिश्रा भारत के हिन्दीभाषी प्रदेश मध्यप्रदेश से हैं तथा प्रारम्भ से ही एक मेधावी शोधार्थी रहीं हैं । उन्होंने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से वनस्पतिशास्त्र में स्नातक (B.Sc.) व स्नातकोत्तर (M.Sc.) उपाधियाँ विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त की हैं । उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से वनस्पतिशास्त्र में डॉक्टरेट (Ph.D.) की उपाधि प्राप्त की है तथा पोस्ट डॉक्टोरल अनुसंधान कार्य भी किया है । वे अनेक शोधवृत्तियों एवम् पुरस्कारों से सम्मानित हैं । उन्हें उनके शोधकार्य के लिए "मध्यप्रदेश युवा वैज्ञानिक पुरस्कार" भी मिल चुका है । डॉ. मिश्रा की अँग्रेजी भाषा में वनस्पतिशास्त्र व पर्यावरणविज्ञान से संबंधित 15 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।

One thought on “क्या हम भी इजराइल की तरह बन सकते थे

  • विजय कुमार सिंघल

    बन सकते थे और बनना चाहिए था। बहुत अच्छा लेख।

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