दैनिक जीवन में अग्निहोत्र
सनातन प्राचीन आर्य वैदिक संस्कृति के अनुसार नित्यकर्म बतलाये गये हैं। जिन्हें सभी गृहस्थ, प्रतिदिन किया करें, धनी हो या निर्धन, बड़ा हो या छोटा, प्रत्येक के लिए आवश्यक होने से उन नित्य यज्ञों का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। वे मनुष्यमात्र के समान कर्म हैं, इसलिये उन्हे महायज्ञ कहते हैं। भगवान् मनु ने इन पांच यज्ञों का अनुष्ठान नित्य एवं आवश्यक बतलाया है –
ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।
नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्तिर्न हापयेत्।।
मनु0 4/22
जहां तक हो सके (ऋषियज्ञं) ब्रह्मयज्ञ (देवयज्ञं) देवयज्ञ (भूतयज्ञं) बलिवैश्वदेवयज्ञ (नृयज्ञं) अतिथि यज्ञ और (पितृयज्ञं) पितृयज्ञ को (न) नहीं (हापयेत्) छोड़े।
महाभारतकार वेदव्यासजी के उपदेश अनुसार –
अहन्यहनि ये त्वेतानकृत्वा भुंजते स्वयम्।
केवलं मलमश्नन्ति ते नरा न च संशयः।
महाभारत अश्व 104/16
(अहन्यहनि) प्रतिदिन ये जो (एतान्) इन महायज्ञों को (अकृत्वा) किये बिना स्वयं (भुंजते) खाते पीते हैं, (ते) वे (नराः) नर (केवलं) केवल (मलं) मल खाते हैं (च) वस्तुतः इसमें (संशयः) संशय नहीं है।
आईये ! पंच महायज्ञ पर क्रमशः विचार करते हैं सबसे प्रथम है ब्रह्मयज्ञ – प्रतिदिन प्रातः तथा सांयकाल प्रभु के चरणों में उपस्थित होकर, अपने विनय तथा प्रेम का प्रकाश करना और परमपिता के गुणों की आराधना करना ब्रह्मयज्ञ का एक भाग है।
स्वाध्याय अर्थात् मोक्षशास्त्रों का अध्ययन करना दूसरा भाग है। शास्त्रों को पढ़ने तथा उनकी बातों पर आचरण करने से उनकी सच्चाई का अनुभव होता है और धर्म में श्रद्धा बढ़ती है। मनुस्मृतिकार कहते हैं –
यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति।
तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते।।
मनु0 4/20
(यथा यथा) ज्यों ज्यों पुरुष शास्त्र को (समधिगच्छति) समझता जाता है (तथा तथा) त्यों त्यों (विजानति) विशेष जाना जाता है और उसको रूचिकर होता है। स्वाध्याय करने वाला आत्मा के स्वरूप से भलीभांति परिचित होकर ठीक-ठीक चिन्तन करना सीख जाता है। सन्ध्योपासना-योग द्वारा आत्मिक मर्मो के मनन का अभ्यास हो जाता है। जब स्वाध्याय तथा भक्तियोग दोनों में सम्पन्न हो जाता है, तो प्रभु के प्रकाश का पात्र बनता है।
देवयज्ञ – इस प्रकार ब्रह्म अर्थात् ईश्वर और वेद के सत्संग से पवित्र होकर मनुष्य को चाहिये कि देवताओं का सत्संग करें। देव का अर्थ परमात्मा है। प्राकृतिक ज्योतियों, शक्तियों और विभूतियों को भी देव कहते हैं। विद्वान् जनों को भी देव कहते हैं। साधक को उचित है कि ब्रह्मयज्ञ में विशेष रूप से प्रभु के आन्तरिक प्रकाश को देखने के लिये उत्सुक होकर अन्तर्मुख होने का अभ्यास करें। देवयज्ञ में उसकी बाह्य विभूतियों और चमत्कारों का ध्यान करता हुआ, उसके विराट् स्वरूप का चिन्तन करें।
पितृयज्ञ – प्रतिदिन अपने माता-पिता, आचार्य, गुरूजन तथा अन्य आश्रित सम्बन्धियों की सेवा तथा तृप्ति का ठीक-ठीक प्रबन्ध करना ही इस यज्ञ का तात्पर्य है। माता-पिता अपने सन्तान के लिए जो-जो कष्ट उठाते और अपना आराम छोड़कर अपने बच्चों के लिए जो कुछ करते हैं, उसका ऋण चुका सकना असम्भव है। अतः अपने वृद्ध, माता-पिता सबके प्रति सन्तान अपने कर्तव्य का पालन करें।
अतिथियज्ञ – यह चौथा महायज्ञ वहीं हो सकता है जहां पितृयज्ञ की प्रतिष्ठा हो। जब कोई विद्वान्, सदाचारी, सन्यासी, महात्मा, अनुभवी सज्जन हमारे घर आ पहुंचे, तो हमारा द्वार उसके स्वागत करने के लिए सदा खुला रहना चाहिये।
बलिवैश्वदेवयज्ञ – पांचवों महायज्ञ द्वारा प्राणिमात्र से सहानुभूति प्रकट करने का उपदेश है। ब्रह्मयज्ञ में महान् प्रभु का ध्यान कर, साधक महान् बनना चाहता है। क्योंकि जिस प्रकार के संकल्पमय आदर्श हमारे सम्मुख होते हैं, हम वैसे ही ढलते जाते हैं। देवयज्ञ में वह भौतिक देवताओं में प्रभु की ज्योति को अनुभव करता हुआ, उनके समान उपकारी बनने का यत्न करता है। पितृयज्ञ पारिवारिक एकता को बढ़ाने वाला है। अतिथियज्ञ जातीय प्रेम तथा संगठन का अभ्यास क्षेत्र है और अन्त में सब संकोच का त्याग सिखाने के लिए भूतयज्ञ आता हैं। जैसे ब्रह्म सबके हृदय में निवास करता है, ऐसे ही साधक भी प्राणिमात्र के हृदय में प्रविष्ट होकर उस ब्रह्म का अनुभव प्राप्त करें। किसी के हृदय में निवास करना हो तो उसके साथ सच्चा प्रेम और उसकी सदा सहायता करनी चाहिये।
— डाॅ धर्मेन्द्र कुमार शास्त्री