गजल
दुश्मन बने हुए हैं चेहरे बड़े चमन के।
शायद बदल न पायें हालात इस वतन के।।
शामिल रहे कभी जो निर्दोष के लहू में।
संसद में घुस गए हैं नेता हमारे बन के।।
जिन पर यकीं किया वे निकले सभी लुटेरे।
टूटे पुनः यहाँ पर सपने हरेक जन के।।
सब कुछ गँवा दिया तो ठुकरा दिया सभी ने।
हमसे कहाँ थी यारी निकले वे यार धन के।।
जिनको समझ रहे थे हम प्रेम का पुजारी।
वे तो दिवाने निकले खिलते हुए बदन के।।
उनसे मिलन न होगा क्यों ‘व्यग्र’ हो रहे हो?
दिल में रहे न उनके अब भाव अपनेपन के।।
— उत्तम सिंह ‘व्यग्र’