राजनीति

लेख– सत्तारुढ़ होते ही राजनीतिक दलों के संकल्प धूलधूसरित क्यों हो जाते हैं?

लाभ के पद को लेकर, भ्रष्टाचार को राजनीति से ख़त्म करने निकली आम आदमी पार्टी का छद्म आडम्बर अब खुलकर बाहर आ रहा है। वैसे जिस राजनीतिक शुचिता और राजनीतिक सुधार की बात करते हुए आम आदमी पार्टी ने लोकतांत्रिक राजनीति में परिवेश किया था। वैसा आचरण व्यक्त करने में आम आदमी पार्टी शुरू से अपने-आप को असमर्थ पाई है। जो स्थिति लोकतांत्रिक राजनीति में आम आदमी पार्टी की वर्तमान समय में निर्मित होती जा रही है। उस दौर में गजानन मुक्तिबोध की कविता की कुछ पंक्तियां उनके राजनीतिक भूत और वर्तमान पर सटीक बैठती है। मुक्तिबोध जी की पंक्तियां हैं- मैं एक थमा हुआ मात्र आवेग, रुका हुआ एक जबरदस्त कार्यक्रम। मैं एक स्थगित हुआ अगला अध्याय, मैं एक शून्य में छटपटाता हुआ उद्देश्य। भ्रष्टाचार के जिन्न को लोकतांत्रिक राजनीति से खदेड़ने के लिए आंदोलन से निकली पार्टी ख़ुद ऐसे पिछले पांच वर्षों में उलझी, कि उसके सारे वादों की पोलपट्टी खुलती चली गई। साथ में उसके राजनीति में सुधार लाने के सभी उद्देश्य धूलधूसरित होते चले गए, औऱ पार्टी जनभावना को पूर्ण करने के बजाय व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के सागर में गोते लगाती हुई दिखने लगी। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जब पार्टी उपजी, तो पहला सवाल यहीं था, क्या नैतिकता और राजनीतिक शुचिता की राजनीति सत्ता के तल से परे होकर नहीं की जा सकती ? उस दौर में आंदोलन के पुजारियों ने जवाब था, कि सत्ता के बाहर रहकर सिर्फ सत्ता को प्रभावित किया जा सकता है। जब तक सत्ता की डोर आंदोलनकारियों के हाथ में नहीं होगी, जनतंत्र में जन की सुनवाई नहीं होगी।

उसके बाद जिस लंबे-चौड़े वादों के साथ आप पार्टी दिल्ली की सत्ता में आई, न तो आम आदमी पार्टी पूरी तरीक़े से जनतंत्र की भावनाओं पर खरी उतर सकी। बल्कि इसके अलावा पार्टी के भीतर नेताओं की बढ़ती महत्वाकांक्षा और सत्ता के मोह ने पार्टी के आंदोलनधर्मी आवेग को शून्य में विलीन कर दिया। आप पार्टी वर्तमान दौर में आंतरिक और बाह्य झंझावात से पीड़ित दिख रही है। सियासी परिवेश में घुसने के बाद आप द्वारा किए जा रहें समझौते और आरोप उसके नैतिकता के पाठ को बट्टा लगाने का काम किए हैं। आम आदमी पार्टी के बीस विधायक अगर लाभ का पद धारण करने के चक्कर मे फंस गए , तो सिर्फ़ केजरीवाल अपने विधायकों को लाभ का पद प्रदान करने के दोषी नहीं, पर आंदोलन के गर्भ से निकली पार्टी भी अगर बने-बनाए राजनीतिक ढ़र्रे पर अपनी गाड़ी दौड़ा रहीं है, तो यह लोकतांत्रिक भारतीय राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। अगर केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 21 विधायकों को जो मंत्री न बन सकें, उन्हें संसदीय सचिव बना दिया, तो वह संविधान और जनप्रतिनिधि कानून की अवहेलना ही थी।

लाभ का पद धारण करने के कारण ही वर्ष 2006 में सोनिया गांधी और जया बच्चन को अपनी संसद सदस्यता गंवानी पड़ी थी। पर केजरीवाल सरकार इन नजीरों से कुछ सीखने के बजाय दिल्ली असेम्बली रिमुबल ऑफ़ डिसक्वालिफिकेशन एक्ट 1997 में ही अपने हितोउद्देश्य के लिए फेरबदल करना चाह रही थी। शुक्र तो उस समय के तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का जिन्होंने इस संशोधन को नामंजूर कर दिया था। जया बच्चन के केस में तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के समकक्ष नजीर पेश करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, कि चाहें वेतन-भत्ते ले या न ले। अगर विधायक और सांसदों ने कोई लाभ का पद लिया है, तो उनकी सदस्यता रद्द की जाएंगी। ऐसे में वर्तमान समय मे सिर्फ़ बहस इस बात की नहीं होनी चाहिए, कि अन्य राज्य के विधायक और सांसद लाभ के पद पर फन फ़ैलाकर बैठे हैं। चर्चा इस विषय पर होनी चाहिए, कि रहनुमाई व्यवस्था क्यों न्यायपालिका के निर्देशों को भी अनदेखा सिर्फ़ अपने हित के लिए कर देती है? यक्ष प्रश्न यह उठना चाहिए, कि क्यों सत्ता के सारथी बनते ही राजनीतिक दल अपने वादे औऱ संकल्प को भूल जाते हैं? विचार तो इस बात पर होना चाहिए, कि वर्तमान दौर में सत्ता की कुर्सी में ऐसा कौन सा दीमक लग गया है, जो भी सत्ता की कुर्सी तक पहुँचता है, वह उसी जन को भूल जाता है, जिसकी फ़िक्र उसे राजनीति में आने से पूर्व तक रहती है।

आम आदमी पार्टी कितना भी ढ़ोल पीट ले, कि उसके विधायकों ने पद का दुरुपयोग और फ़ायदा नहीं लिया, पर सवाल तो यहीं है, जब उन्हे उससे फ़ायदा था नहीं, फ़िर ओखली में सिर दिया ही क्यों? नई तरीक़े की राजनीति का दंभ भरने वाली आम आदमी पार्टी के अयोग्य घोषित किए जाने वाले 20 विधायकों में से 12 के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज हैं, जो आम आदमी पार्टी के संकल्पों को ही धत्ता बताने का काम करते है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में हर पार्टी ने संसदीय सचिव बनाए हैं, लेकिन अगर राजनीतिक शुचिता औऱ जन की बात करने वाली राजनीतिक पार्टी एक बार में 21 विधायकों को संसदीय सचिव बना दे, फ़िर उसकी नीति औऱ राजनैतिक शैली पर सवाल जरूर खड़ा होता है। लाभ के पद को लेकर संविधान के अनुच्छेद 102 (1) ए में स्पष्ट उल्लेख है, कि कोई भी विधायक और सांसद ऐसे पद पर नहीं हो सकता। जहां से उसे अन्य तरीक़े के फ़ायदे हो।

पर लोकतांत्रिक रीति में राजनीतिक दल शायद अपने को संविधान और क़ानून सबसे ऊपर समझने लगे हैं, जो चिंताजनक स्थितियां निर्मित करती हैं। संविधान के अलावा जनप्रतिनिधि क़ानून की धारा 9 (ए) भी जनप्रतिनिधियों को लाभ का पद का धारण करने पर रोक लगाती है। पर मानता कौन है, सत्ता तो जैसे रहनुमाई व्यवस्था के घर की खेती सत्ता में आते ही बन जाती है। सोनिया गांधी पर सांसद होने के साथ राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का पद होने के कारण उनकी सदस्यता रद्द करनी पड़ी थी। वहीं जया बच्चन पर राज्यसभा सांसद होने के साथ उत्तर प्रदेश फ़िल्म विकास निगम का चेयरमैन होने का भुगतभोगी बनना पड़ा था। जय बच्चन तो सुप्रीम कोर्ट तक भी इस मामले को लेकर गई थी, लेकिन आखिरकार उन्हे पद से इस्तीफ़ा देना ही पड़ा था। ऐसे में आप के विधायकों का पद भी खतरे में ही समझ आता है। ऐसे में अगर इन विधायकों की छुट्टी सुप्रीम कोर्ट कर देता है, तो अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की जनता को चुनाव में जवाब देना टेढ़ी खीर साबित होने वाला है, क्योंकि जिस संकल्प के साथ आप का उदय हुआ था। वह संकल्प अस्त हो चुका है। हां मगर अन्य राज्यों औऱ पार्टियों में भी ऐसे पद रखने वाले विधायक औऱ सांसद वर्तमान में हैं, तो चुनाव आयोग की कैंची उन पर भी बिना किसी देरी के चलनी चाहिए, जिससे सियासतदानों के होश ठिकाने आ सकें। जब देश में किसी के पास योग्यता होने के बाद भी एक अदद नौकरी नहीं मिल रही, औऱ सियासतदां बिना योग्यता के एक से अधिक पद धारण कर घूम रहे हैं, तो यह सरासर लोकतंत्र और जनतांत्रिक भावना की अवहेलना है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896