व्यंग्य – ‘बागों में बहार है, कलियों पे निखार है’
बसंत मतलब कवियों और साहित्यकारों के लिए थोक में रचनाएं लिखने का सीजन। बसंत मतलब तितलियों का फूलों पर मंडराने, भौंरे के गुनगुनाने, कामदेव का प्रेमबाण चलाने, खेत में सरसों के चमकने और आम के साथ आम आदमी के बौरा जाने का दिन। बसंत मतलब कवियों व शायरों के लिए सरस्वती पूजन के नाम पर कवि सम्मेलन व मुशायरों के आयोजन का ख़ास बहाना। बसंत मतलब ‘बागों में बहार है, कलियों पे निखार है, हाँ है तो, तो तुमको मुझसे प्यार है’ हर दिल फेंक आशिक़ का ये कहना। बसंत मतलब पत्नियों के भाव में अचनाक वृद्धि होना और पतियों को मयाके जाने की ‘खुल्लम खुल्ला’ धमकी देना। बसंत मतलब ‘कुछ कुछ होता है’ की जगह अब ‘बहुत कुछ’ होना। और फिर इस ‘बहुत कुछ’ को पाने के लिए प्रेमी का घर के बर्तन और कपड़े तक धोना। जिस तरह सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है उसी तरह बसंत के अंधे को पीला ही पीला नज़र आता है। बसंत मतलब फेसबुक पर फेसबुकियों के द्वारा कृत्रिम प्रेम दिखाने के लिए रंगीन स्टेटस चिपकाने और खुद को अपने प्रिये की स्मृति में घनानंद घोषित करने का अवसर। बसंत मतलब बजरंग दल और पिंक स्क्वाड जैसे संस्कृति रक्षक दलों के मुखियाओं के लिए अपनी छवि में चार चाँद लगाने का सुनहरा मौका। बसंत मतलब पतझड़ के भूने हुए के लिए शीतल समीर का झोंका। बसंत मतलब जीवन का श्रेष्ठतम अहसास। इसलिए बसंत न केवल युवाओं के लिए अपितु बुजुर्गों के लिए भी हैं ख़ास। क्योंकि सयाने लोग कहे गये हैं कि आदमी उम्र से नहीं, मन से बूढ़ा होता है। बसंत में महुआ, केवड़ा और टेसू के फूलों की गंध से अभिभूत होकर मन हिलोरे मारने लगता है। सोये हुए अरमान जागने लगते हैं। इस प्यार करने के मौसम में दिल के भीतर से फीलिंग ऑसम वाली आने लगती है। सचमुच ये बासंती बहार तो खुशियों का त्योहार हैं। बसंत में चलने वाली इन हवाओं में लगता है किसी ने भांग मिला दी हैं। जो सबको मदहोश किये जा रही हैं। इसके ऊपर से कोयल की कुहू कुहू और पपिये की पिहू पिहू सुनकर किसका मन बहका नहीं जायेगा आधी रात को ? इस बसंत ने महंगाई की तरह किसी को शेष नहीं छोड़ा हैं। सबको इसने अपनी गिरफ्त में ले रखा हैं। कालिदास, भारवि, विद्यापति, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर, विद्यानिवास मिश्र सहित कई बड़े-बड़े साहित्य के सूरमा और धुरंधरों को इसने अपने जादू से वश में कर रखा हैं। बिलकुल इसी तरह जिस तरह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने सभी को ’भाईयों और बहनों’ कहकर अपने जाल में जकड़ रखा है। इन साहित्यजीवियों और रचना धर्मियों ने बसंत की प्रसन्नता में सारे कीर्तिमान भंग कर दिए हैं। इनके मुंह से बसंत की इतने तारीफें सुनकर बाकि की ऋतुओं को बसंत से ’हिस्टीरिया’ होने लग गया हैं। बसंत तो चार दिन की चाँदनी और फिर अंधेरी रात है। क्षण भर का मज़ा है और फिर ज़िंदगी भर सजा है। आदमी को बसंत के आवेश में अपनी औकात नहीं भूलनी चाहिए। बसंत के चक्कर में यह नही भूलना चाहिए कि इसके बाद गर्मी के गर्म होते तेवरों में तवे पर सेंकी जाने वाली रोटी की तरह तपना ही है। अब भले ही भंवरों की गुनगुन सुनकर खुश हो लो, प्यारे ! फिर बाद में तो मच्छरों की टें-टें सुननी ही है। और अपना रक्त मच्छरों को दान करना ही है। बसंत को लेकर सभी के अलग-अलग मयाने हैं। नेताओं के लिए चुनाव बसंत है। इस बसंत में कई नेता पुष्प (कांटे) की भांति प्रस्फुटित होते हैं और चुनाव के बाद परिणाम जानकर कई नेता बौरा जाते है। इस चुनावी रण में बहुतों की हवा निकल जाती है और बहुतों में हवा भर भी जाती है। चुनावी समय में ये नेता कुर्सी के इर्द-गिर्द भौंरे और तितलियों की तरह मंडराते हैं। फूलों के रस का आस्वादन लेने के बाद ये भौंरे विरह की आग में जनता को अकेले छोड़ जाते हैं। और तो और कुछ तो बसंत में अपने वर्चस्व को चमकाने के आस में उल्टा चारा और कोयला खाकर जेल की सलाखों में पतझड़ भोगते है। इसी तरह यदि बेरोजगारों के हाथों में नौकरी आये तो उनका बसंत हो। बिना नौकरी के छोकरी तक जाने के सारे रास्ते बंदहो जाते है। यूं कहिए कि नौकरी के बिना जीवन में पतझड़ ही पतझड़ ही है। कुछ लोगों का इस नौकरी से भी मन नहीं भरता। उनके लिए नौकरी से मिलने वाली तनख्वाह पूर्णिमा का चाँद है। जो महीने के पहले दिन बढ़ी हुई नज़र आती है और फिर धीरे-धीरे छूमंतर होती जाती है। ऐसे असंतुष्ट लोगों के लिए ऊपरी कमाई ही बसंत है। सच तो यह है कि यदि जेब में विटामिन एम हो तो हर दिन बसंत ही बसंत है। इस विटामिन एम के आगे तो पतझड़ भी मारा जाता है। इसलिए बसंत ! तू भी पूंजीपतियों का पर्व कहलाता है।