हास्य व्यंग्य : रिकार्ड श्रृंखला या श्रृंखला का रिकार्ड
एक बार फिर बिहार ने रिकार्ड कायम किया है।सामाजिक कुरीतियों को बहिष्कृत करने का नहीं बल्कि मानव श्रृंखला बनाने का।
गौरयलब है कि पिछले साल भी शराबबंदी के खिलाफ मानव श्रृंखला का रिकार्ड बना था और लिम्का वर्ल्ड बुक में दर्ज भी हुआ।
शराबबंदी कानून भी बना साथ ही शराब के सामाजिक बहिष्कार हेतु मानव श्रृंखला भी बनी।नारे लगे,चुनाव प्रचार में उपलब्धि का एक टाॅपिक भी बना
बावजूद इसके हर दिन कोई ना कोई शराब विक्रेता या उपभोक्ता पुलिस के हत्थे चढ़ ही जाते है।
चढ़े भी क्यों ना आखिर जिस बंदे को शराब युक्त बिहार में शराब का ठेका खरीदने की औकात नहीं थी आज नशा मुक्त बिहार में शराब तस्कर जो बन रहे है।चूंकि वर्त्तमान बिहार में शराब संजीवनी बूटी की तरह दुर्लभ है सो इच्छुक लोगों को शराब की तलब ज्यादा होने लगी है इसलिए कुकुरमुत्ते की तरह शराब कारोबारी भी बढ़ रहे है।
जिसका प्रमाण है कि आए दिन कोई ना कोई ‘रईस’ पुलिस थाने की शोभा बढ़ाने पकड़े ही जाते है,जेल भी जाते है हालांकि अधिकांश शातिर बच भी जाते है।
लेकिन आज तक ये देखने या सुनने में नहीं आया कि सामजिक जागरूकता से किसी तस्कर या पियक्कड़ की अंतरात्मा स्वतः जगी हो और उन्होंने थाने में जाकर शराब सौंपते हुए ये प्रण किया हो कि अब शराब को ‘ना छुएंगे ना चखेंगे और ना बेचेंगे’।
एक बार फिर हम बिहार वासियों ने मानव श्रृंखला बनाई,घंटों सड़कें जाम रही,लोगों एवं मरीजों को परेशानी हुई कोई नहीं कम से कम हाथ पकड़ कर ये संकल्प तो लिया कि ‘ना दहेज लेंगे और ना देंगे’।
ये भी क्या कम है कि एक बार फिर से न्यूज़ चैनल,पेपर की सुर्खियों में तो आए कि हम रूढ़िवादिता और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध इस कड़ाके की ठंड में भी सड़कों पर खड़े रहे।क्योंकि लोगों में जागरूकता इतनी प्रखर है कि ये लोग कानून से ज्यादा समाज सम्मत नियमों को तवज्जों देने लगें हैं।
किंतु इस सारे प्रकरणों में विचारणीय बात ये है कि ये मानव श्रृंखला लोगों या जनता के द्वारा नहीं बल्कि सरकार के द्वारा प्रायोजित थी।
अब सरकारी आदेश हो और जनता कम से कम सरकारी कर्मचारी नहीं माने ऐसा कभी हुआ है। हाथों से हाथ पकड़ खड़े हो गए श्रृंखला व श्रृंखला का रिकार्ड बनाने।
कई जगहों पर ढोल-नगाड़े सहित नेताजी भी दहेज एवं बाल विवाह विरोधी राग गाते देखें गए।
बड़े तो बड़े छोटे-छोटे बच्चें जिन्हें दहेज का अर्थ भी नहीं मालूम वे भी शामिल थे मानव श्रृंखला में।जबकि इस श्रृंखला की सार्थकता बच्चों के अभिभावक की सहभागिता से होती।
खैर कोई नहीं इतना संदेश तो पुरे देश को मिला कि हम लोगों की आस्था कानून से ज्यादा मानवीय जागरूकता में है।
हमारे नेताजी भी विधि और कानून बना कर समाजिक कुरीतियों के उन्मूलन की बजाय जन जागरूकता से इन विसंगतियों को दूर करने के लिए कृत संकल्पित है।
बहरहाल इस मानव श्रृंखला से कुछ लाभ यथा लंबी मानव श्रृंखला बनाने का विश्व रिकार्ड बिहार के खाते में आया,नेताजी एवं कार्यकर्ताओं की फोटो पेपर व न्यूज़ चैनल में आई,राजनीति के छल-प्रपंच से परे गरीब लड़कियों के पिता में एक सकारात्मक आस व उम्मीद तो दिखी।
किंतु इसका साइडइफेक्ट उन लड़कों के पिता या अभिभावक पर पड़ सकती है जिनके विवाहयोग्य नौकरीशुदा कुंवारे लड़के घर पर पड़े है।उन्हें ऐसा लग रहा है मानों सरकार ने उसकी प्रॉपर्टी को कालाधन घोषित कर दिया है।
— विनोद कुमार विक्की