लेख – नमक वाली चाय
आज बहुत दिनों के बाद चाय पीने का मन कर रहा था. यूँ तो मुझे चाय पीने की आदत है नहीं और कोई पिलाए तब भी नहीं पीता. पर आज न जाने क्यूँ बड़ी तासिर लग रही थी कि चाय पिउँ और वो भी चीनी ड़ालकर नहीं नमक डालकर. आप कहोगे न माथा फिर गया है. आपने कभी नमक डालकर चाय पी नहीं होगी लेकिन अगर आपको नमक वाली चाय पीने को कही जाए तो आपको सुनने भर से बुरा लग जाएगा. हो सकता है आपको गुस्सा भी आए. ये भी हो सकता है कि आप उस चाय को सामनेवाले के मुँह पर दे मारें.
आपको चाय में चीनी की जगह नमक घुल जाने पर इतना गुस्सा आता है पर ताज्जुब की बात ये है कि हमारे समाज में दिन पर दिन जहर घुलता जा रहा है पर किसी को गुस्सा ही नहीं आ रहा. ये गुस्सा आता भी है तो किसे भुक्तभोगी को, उसके परिवार को, उसके आस पड़ोस को, उसके कुछ रिश्तेदारों को और कुछ छुटभैया नेता जैसे लोगों को. और अगर आप खुद को गुस्सा दिलाने के लिए उस दिन का इंतजार कर रहे हो कि आपके घर परिवार में भी कुछ ऐसा वैसा हो तो वो दिन भी दूर नहीं जिस दिन आप भी उन्हीं लोगों की तरह बिलख रहे होंगे. इस भीड़ भरी दुनिया में खुद को अतिशय असहाय महसुस कर रहे होंगे. ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्यूँ कि आप और हम इन खबरों पर चुप्पी साध लेते हैं. घर में जब टीवी पर ऐसी खबरें आती हैं तो हम चैनल बदल लेते हैं, नजरअंदाज कर देते हैं.
जी हाँ, जो ये हमने नजरअंदाज करना शुरू किया न सारी फसाद वहीं से शुरू होती है. मुहल्ले के नुक्कड़ पर कुछ लड़के सिगरेट फुँक रहे होतें हैं. हम नजरअंदाज कर के चल देते हैं. रास्ते में कोई सरफिरा किसी लड़की का पीछा कर रहा होता है. जबतक आप आसपास होते हो वो कुछ नहीं बोलता पर आपके नजरअंदाज कर के निकलते हीं उसे हिम्मत मिल जाती है और कुछ ऐसा वैसा हो जाता है. पहले शहरों में ऐसा देखने का ज्यादातर मिलता था. किसी को किसी से मतलब नहीं. कोई कुछ भी कर रहा हो कोई लेना देना ही नहीं. इसलिए शहरों से ऐसी घटनाओं की शुरुआत हुई. धीरे धीरे मोबाईल युग का आगमन हुआ. इंटरनेट का प्रचार प्रसार हुआ. नेट की दुनिया में हम वैश्विक ग्राम के सदस्य हो गये पर हकीकत के धरातल पर हम घर के कोनों में सिमट गये. गाँव का अपनापन तो कहीं खो ही गया. सारे बड़े ताउ, चाचा, भईया जो गलत करने पर टोक देते थे किसी दरबे में सिमट गये और ये घटनाएँ गाँवों में भी आम हो गयी. हाँ इनका प्रतिशत शहरों की अपेक्षा गाँवों में कम हीं है. पर टोकरी का एक आम अगर सड़ गया न साहेब तो बाकी के आमों को सड़ने में ज्यादा वक्त न लगेगा और अगर आप ये सोचकर कि ये आपके घर-परिवार का बच्चा नहीं है, किसी को गलत करने से आगाह नहीं करते तो ये ख्याल रखियेगा आपके बच्चे को भी गलत करने से कोई न रोक पाएगा.
अगर आप सच में बदलाव चाहते हो तो अफसोस जताना छोड़िए और अपने बेटों को व्यवहार का तरीका सिखाइए, उनको समाज में रहने का तरीका सिखाइए, उनके साथ उठिए बैठिए. हाँ अगले कुछ दिनों तक कैण्ड़ल मार्च जरूर निकालिए हो सकता है पिघलते मोम को देखकर आपके बच्चे का दिल द्रवित हो जाए. पर हमारे समाज के कुछ युवक भी इस बात को समझ गये तो भले ही इसका परिणाम आज सबेरे ही दृष्टिगोचर न हो पर देर सबेर जरूर दिखेगा. मैं ये नहीं कहता बेटियों को आत्मरक्षा न सिखाइये. उन्हें पढ़ाइये, लिखाइये, स्वावलंबी बनाइये और हो सके तो जूड़ो कराटे भी सिखाइए पर आप ही बताइए साहेब उस आठ माह की बच्ची को क्या सीखाना पसंद करेंगे. जिसने ढ़ंग से अपनी आँखें भी न खोली होंगी जिसने अभी माँ तक न कहा होगा, उसके साथ ऐसा कुकृत्य. जिस देश में ऐसी घटनाएँ हों उस देश के पुरूषों को खुद को नर कहने पर भी शर्म आनी चाहिए.
मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा कि मेरी चार बहनें हैं. बल्कि इसलिए कि मैं उस देश का वासी हूँ जो कभी जगतगुरू था. जिसने पूरी दुनिया को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित किया. जहाँ गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषियों का प्रादुर्भाव हुआ. जहाँ कि रानी लक्ष्मीबाई और चेन्नमा ने युद्धभूमि में युद्धकला के पारंगतों को धूल चटाया. जहाँ “यत्र नारयस्तु पुज्यंते रमंते तत्र देवता” की ऋचाओं से वेद भरे पड़े हैं. और जहाँ लगभग हरेक ऐसे मौकों पर इस मंत्र को जरूर उच्चरित किया जाता है.
पर अफसोस की पराकाष्ठा तो देखिए. इतना सब होने के बावजूद घृणा के इस कुकृत्य के बाद जहाँ से कि शर्म को भी शर्म आने लगती है. हमारा खून नहीं खौल रहा. हाँ हमारे खून का ताप तो जरूर बढ़ा है लेकिन उबाल नहीं आ रहा. आप पानी को भी ताप दीजिएगा तो पानी में भी उबाल आएगा. पर हमारे खून को तो न जाने कौन सी सर्दी लग गयी है कि उबाल हीं नहीं आता. कभी फुर्सत हो तो दो मिनट सोचिएगा. शायद कुछ उबाल आ जाए.
— विशाल नारायण
४ फरवरी १८