सामाजिक

लेख–कमज़ोर होते सामाजिक मापदंड, बढ़ते बाल अपराध का कारण

हरियाणा में एक छात्र ने प्राचार्य को मौत की नींद सुला दिया। उसके पहले उत्तर प्रदेश में एक छात्र ने एक सात वर्षीय बालक को चाकू मार दिया। ये घटनाएं कभी-कभार घटित नहीं हो रहीं, समाज का हिस्सा बनती जा रहीं हैं। ये सब घटनाएं उस दौर में घट रहीं हैं, जब समाज आधुनिकता का दम्भ भर रहा है। इन दो घटनाओं के पहले गुरुग्राम में प्रधुम्न की हत्या भी इसी तरह के अपराध का हिस्सा बन चुकी है। जिस हिसाब से समाज में बच्चे उग्र रूप धारण करते हुए दिख रहें हैं। वह बहुतेरे सवालों को जन्म दे रहा है। पहला प्रश्न क्या सामाजिकता और नैतिकी की डोर कमज़ोर हो गई है? क्या आज की शिक्षा व्यवस्था सामाजिक प्राणी तैयार करने में सफ़ल नहीं हो पा रहीं? बच्चों के भीतर बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति को देखा जाए, तो पता चलेगा कि प्रतिस्पर्धा और सबसे आगे रहने का सामाजिक दवाब बच्चों के भीतर असहिष्णुता औऱ उग्रता का भाव समावेशित कर रहा है। इसके अलावा वर्तमान संचार क्रांति के युग में सूचनाओं को दायरे में सीमित करना आसमाँ से चांद तोड़ने से भी मुश्किल काम है। ऐसे में युवा पीढ़ी और बच्चों के पास भी अपनी ख़ुशी औऱ गम को समझने के दो पहलू उपलब्ध हैं। फ़िर सवाल यहीं उनको मयस्सर कैसा माहौल हो पाता है, उसी अनुरूप कोमल मन ढलना शुरू हो जाता है। अपनी पुरातन संस्कृति को भूलते समाज में एकल परिवार का चलन बढ़ रहा है, औऱ आस- पड़ोस की सामाजिकता भी शहरीकरण औऱ आपसी मतैक्य न मिल पाने के कारण धूल-धूसर होती जा रहीं है। जिस कारण बच्चों में एकांतता का भाव भी ग़लत विचारों का वाहक बन जाता है।

टूटता सामुहिक परिवार का ताना-बाना, आपसी संवाद की कमी औऱ सही-ग़लत की सीख न देना भी बच्चों के अंदर हिंसक प्रवृत्ति उत्पन्न होने का कारण है। आज के दौर की कोई सबसे बड़ी सामजिक चुनौतियों में से एक है, तो वह बढ़ते बाल अपराध की चुनौती है। बच्चों का कोमल मन अब आवेग और आवेश की ज्वाला बनता जा रहा है, जो सामाजिक व्यवस्था के लिए चिंता का विषय है। बदलती जीवन पद्धति और खान-पान ने जीवन को देखने और सोचने- समझने का तरीका बदल दिया है। इसलिए बदलते वक्त में बच्चों की मानसिकता समझने के लिए अभिभावकों को आगे आना होगा, बच्चों के लिए कुछ समय निकालना होगा। आज के वक्त में बच्चों के आचार- विचार, तौर- तरीकों और व्यवहार को समझने की जरूरत है। बच्चों को स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराने होंगे। हमारे पाल्य टीवी और मोबाइल पर क्या देखते और सुनते हैं, इसकी पूरी निगहबानी करने की जरूरत है। बच्चों में इतनी आक्रांता समाज को डरा देने वाली है। ऐसे में बहुतेरे प्रश्न भी उठते हैं, कि क्या कारण है जो बच्चों में जरा-सा भी धैर्य नाम की चीज़ नहीं बची है? उनकी मासूमियत कहाँ खो गई है? अब बचपन हर बात पर मरने औऱ मारने के लिए उतावला क्यों दिखता है? अगर इन प्रश्नों का उत्तर ढूढ़ने निकले तो पता चलता है, आधुनिकता की आड़ और माँ-बाप द्वारा अपने पाल्य के प्रति वफादार न होने का कारण बचपन उग्र और आपराधिक प्रवृत्ति की ओर बढ़ रहा है। इसके अलावा दूसरा दोष उस व्यवस्था का है, जिसमें स्कूल को शिक्षा का मंदिर कहा जाता है, जो आज सिर्फ़ किताबी ज्ञान बेचकर पैसा छापने की मशीन बन गई है। तीसरा कारण तो संचार क्रांति का वाहक बना मोबाइल इंटरनेट है। ऐसे में जिन कंधों पर देश के नव निर्माण का दायित्व है, अगर उनका ही बचपन अंधकार की तरफ़ बढ़ जाएगा, फ़िर समाज औऱ सामाजिकता के तो कोई मायने बचेंगे नहीं, साथ में आधुनिक जीवन- शैली भी किसी काम की नहीं होगी, यह समाज को समझना चाहिए। ऐसे में अगर अपने पाल्य को अपराध के अंधेरे से समाज को सुरक्षित करना है, तो उन्हें अपने बच्चों के लिए समय निकालकर संवाद करना चाहिए, उनकी दिनचर्या पर नज़र रखना भी जरूरी है। साथ में बच्चों में खेलकूद की भावना उत्पन्न की जाए, क्योंकि सिर्फ़ किताबी ज्ञान से जीवन नहीं चलता। इसके अलावा अगर बच्चों को आपराधिक प्रवृत्ति से बचाना है, तो घर पर उन्हें सामाजिक और नैतिक मूल्य सिखाने होंगे। स्कूल तो सिर्फ़ किताबी कीड़ा तैयार कर रहा है। शायद हमारा देश अगर गुरुकुल पद्धति की ओर पुनः करवट ले ले, तो बच्चों को आपराधिक प्रवृत्ति में संलिप्त होने से बचाया सकता है, क्योंकि गुरुकुल पद्धति में किताबी ज्ञान शुरू से न देकर सामाजिक औऱ नैतिक मूल्यों की समझाइश भी दी जाती थी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896