धूप कितनी चमकीली है
धूप कितनी चमकीली है
पेड़ों के पत्ते जैसे नहाए हुए हैं
हर तरफ साफ दिखता है
पहली नजर है शायद
चलने पर ये धूप
कड़ी तपिश देगी
झुलसा देगी तन को
और झुंझला देगी मन को
फिर जब धूप जेठ मे जवान होगी
देख पाना मुश्किल होगा
खुले आसमान की ओर
दिन काटने को
लगेंगे सब अपने अपने कामों में
कहीं मन से तो कहीं बेमन से
ढलता सूरज और आती शाम
को सब सलाम करने निकलेंगे
बैठेंगे कुछ यूँ
जैसे सुकून बैठता है
करेंगे बातें लंबे इंतजार की
हंसी में डूबी उदासी की।
— सरोज नेगी