ऋषि दयानन्द के बोध से विश्व के सभी मनुष्यों का भाग्योदय
ओ३म्
आर्यसमाज आन्दोलन के संस्थापक और महाभारतकाल के बाद वैदिक धर्म के प्रचारक शिखर पुरुष ऋषि दयानन्द के बोध की इस लेख में चर्चा करते हैं। ऋषि दयानन्द का बचपन का नाम मूलशंकर था। उनके पिता कर्षनजी तिवारी थे। आप गुजरात राज्य के मोरवी जनपद के टंकारा नामक स्थान पर 12 फरवरी, 1825 ईस्वी को जन्में थे। आयु का चौहरवां वर्ष चल रहा था। पिता शिवभक्त थे। शिवरात्रि निकट थी, अतः पिता ने अपने लगभग 14 वर्षीय पुत्र मूलशंकर को शिव पुराण की कथा सुनाकर उन्हें शिवरात्रि का व्रत रखने की प्रेरणा की। शिव की कथा में पिता ने उन्हें ईश्वर के रूप में चित्रित कर उन्हें संसार का रचयिता और मनुष्यों की सब कामनाओं को पूर्ण कराने वाला बताया था। पिता ने जब उन्हें शिवरात्रि का व्रत करने की प्रेरणा की तो कम आयु व दिन में अनेक बार भोजन करने वाले बालक मूलशंकर ने शिवरात्रि का व्रत रखना स्वीकार कर लिया। शिवरात्रि के दिन मूलशंकर जी ने विधि विधान पूर्वक व्रत किया। रात्रि को टंकारा के निकटस्थ शिव मन्दिर में रात्रि जागरण के लिए पिता के साथ पहुंच गये। ग्राम के अनेक लोग भी वहां मन्दिर में जागरण के लिए एकत्रित थे। मूलशंकर को बताया गया था कि यदि जागरण करते समय व्यक्ति सो जाता है तो उससे व्रत का फल भंग हो जाता है। इस बात को अपने मन में रखकर मूलशंकर जाग रहे थे। नींद का प्रभाव होता तो वह अपनी आंखों पर जल के छींटे दे देते थे। देर रात्रि मन्दिर में उपस्थित सभी भक्तजन सो गये। एक बालक मूलशंकर ही जाग रहे थे। वह देखते हैं कि मन्दिर के बिलों से चूहे निकले और शिव की पिण्डी पर इधर उधर अबाध रूप से भ्रमण करने लगे। वहां भक्तों ने जो अन्न आदि पदार्थ चढ़ा रखे थे उन्हें वह चूहे खा रहे थे। इस दृश्य को देखकर बालक मूलशंकर का मन अनेक प्रश्नों से घिर गया। उन्हें समझ नहीं आया कि जब शिव सर्वशक्तिमान हैं तो वह चूहों को अपने मस्तक से भगा क्यों नहीं रहे हैं। चूहों का स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण करना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हो रहा था। उन्होंने मन्दिर में ऊंघ रहे अपने पिता को नींद से जगाया और चूहों का वह दृश्य दिखा कर पूछा कि शिव इन चूहों को अपने मस्तक पर से भगा क्यों नहीं रहे हैं? क्या इनमें इन्हें भगाने जितना भी बल नहीं है। मनुष्य पर मक्खी भी बैठ जाये तो वह उसे हटा देता है। भगवान शिव को भी चूहों की इस दुष्टता के लिए दण्डित करना चाहिये। पिता कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सके। इससे रुष्ट होकर मूलशंकर पिता की आज्ञा ले कर घर चले गये और उन्होंने अपना व्रत तोड़ दिया। अपनी माता से उन्होंने भोजन लिया, खाया और सो गये तथा अगले दिन कुछ देर से उठे। शिव के सिर पर चूहों का उछल कूद करना, शिव का उन्हें न हटाना ही ऋषि दयानन्द को बोध कहा जाता है। उन्हें यह बोध हुआ था कि शिव की मूर्ति ईश्वर की भांति सर्वशक्तिमान नहीं है। ईश्वर वा शिव का यथार्थ स्वरूप मूर्ति में विद्यमान नहीं है। शिव की वह पाषाण मूर्ति तो शक्ति व बल स्ै रहित है जो एक साधारण चूहे को भी नहीं भगा सकती। इस बोध के परिणाम स्वरूप ही उन्होंने सदा सदा के लिए शिव व अन्य किसी देवता की मूर्ति की पूजा करना छोड़ दिया और जीवन के उत्तरार्ध में मूर्तिपूजा का खण्डन व निराकार व सर्वव्यापक सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर का योग विधि ध्यान व उपासना का प्रचार किया।
शिवरात्रि की घटना के बाद उनकी एक बहिन की अचानक हैजे से मृत्यु हो गई और उसके कुछ काल बाद उनको सबसे अधिक प्यार करने वाले चाचा जी की मृत्यु हुई। इन घटनाओं ने उनके जीवन में वैराग्य भावना को उत्पन्न किया। वह जीवन व मृत्यु के यथार्थ रहस्य को जानना चाहते थे और इसके साथ ही ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को भी जानना चाहते थे। ईश्वर की प्राप्ति के साधन क्या हैं, वह भी उनके लिए जिज्ञासा का विषय था। इन प्रश्नों के उत्तर उन्हें अपने आसपास नहीं मिले अतः उन्होंने विद्या के अध्ययन में मन लगाया। उनके माता-पिता को उनके वैराग्य भाव का पता चला तो उन्होंने उनका विवाह करने का निश्चय किया। विवाह की तिथि निकट आने पर गृहस्थ जीवन में पड़ने से बचने के लिए वह आयु के 22वें वर्ष में अपने घर से निकल भागे। उसके बाद लगभग 13 वर्षों तक उन्होंने देश के अनेक भागों का भ्रमण किया और इस मध्य साधु, संन्यासी व विद्वानों से भेंट ओने पर उनसे अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करने का प्रयत्न करते रहे। उन्हें जहां पुस्तकालय या किसी विद्वान आदि से जो भी पुस्तकें मिल जाती थी, उसका वह अध्ययन करते थे। संन्यास लेकर वह स्वामी दयानन्द बन चुके थे। योगाभ्यास में उनको अच्छी सफलता प्राप्त हुई थी। विद्या ग्रहण का स्वप्न पूरा करना उन्हें अभी शेष था। उन्हें ज्ञात हो चुका था कि मथुरा में स्वामी विरजानन्द जी ज्ञान व विद्या के धनी हैं। वह वहां एक पाठशाला भी चलाते थे। सन् 1857 की देश को आजाद कराने की क्रान्ति से पूर्व व पश्चात उथल पुथल के बाद सन् 1860 में वह मथुरा पहुंचते हैं और प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से वैदिक व्याकरण अष्टाध्याय-महाभाष्य-निरुक्त आदि का अध्ययन करते हैं। इस अन्तेवासी शिष्य को स्वामी विरजानन्द जी से वेद, दर्शन, उपनिषद आदि अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों की चर्चा करने का अवसर अवश्य ही मिला होगा।
सन् 1863 में अध्ययन समाप्त कर उन्होंने स्वामी विरजानन्द जी से विदा ली और उनकी प्रेरणा व मंत्रणा से संसार में वेदप्रचार कर अविद्या दूर करने का मिशन पूरा करने का संकल्प लिया। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी वेदों की मूल सिंहताओं की प्राप्ति, उसके चिन्तन-मनन व उनके आधार पर अपनी मान्यताओं के निर्धारण में लग गये। वेदों की मूल संहितायें प्राप्त कर उनका अनुशीलन करने के बाद उन्होंने वेदों का प्रचार आरम्भ कर दिया। देश के अनेक भागों में जा-जा कर वहां वैदिक प्रवचन व उपदेश किये। स्वामीजी मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे। उनका मानना था कि मूर्तिपूजा वेदविहित न होने, वेदविरुद्ध होने व युक्तिसंत न होने से व्यर्थ का कार्य है। ईश्वर की उपासना की सही विधि ईश्वर के वेद वर्णित गुणों से ईश्वर का ध्यान करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना व वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय ही है। इसी कारण उन्होंने पंचमहायज्ञ विधि लिखी जिसका प्रथम यज्ञ वा कर्तव्य ईश्वरोपासना व सन्ध्या है। सन्ध्या ईश्वर का प्रातः व सायं ध्यान करने को कहते हैं। स्वामी जी ने वायु व जल की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र देवयज्ञ को भी गृहस्थ मनुष्यों का आवश्यक कर्तव्य बताया। यज्ञ करने से मनुष्य स्वस्थ, निरोग, दीर्घायु, आस्तिक, ईश्वर का प्रिय व ज्ञान व विज्ञान से संयुक्त व समृद्ध होता है। इसी प्रकार उन्होंने प्रतिदिन पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ को भी गृहस्थियों के लिए अनिवार्य बताया।
मृर्तिपूजा ईश्वरीय ज्ञान वेद के विरुद्ध है। इसे पौराणिक सनातनी विद्वानों से मनवाने के लिए उन्होंने मूर्तिपूजा को वेदविहित सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ व संवाद आदि किये जिसमें वह सदैव सफल रहे। सनातनी बन्धु मूर्तिपूजा के पक्ष में वेद को कोई प्रमाण, कोई ठोस युक्ति व तर्क नहीं दे सके। स्वामी दयानन्द जी ने अविद्या दूर करने के लिए ही मूर्तिपूजा का खण्डन कर सच्चिदानन्द गुणों से युक्त परमात्मा की वेद व योगदर्शन की विधि से उपासना का प्रचार किया था। वेदों के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने पंचमहायज्ञविधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु एवं कुछ खण्डनात्मक ग्रन्थों सहित अनेक वैदिक ग्रन्थों की रचना की। इसके अतिरिक्त स्वामीजी ने चार वेदों के संस्कृत व हिन्दी में भाष्य बनाने का कार्य भी आरम्भ किया था। यह अत्यन्त महान कार्य था। सृष्टि के आरम्भ से ऋषि दयानन्द के काल तक वेद व ऋषियों के आर्ष प्रमाणों से युक्त चार वेदों का ऐसा कार्य किसी ने नहीं किया था। यदि किया भी होगा तो वह उपलब्ध नहीं था। जो वेदार्थ उपलब्ध थे वह वेद विरुद्ध व वेदों की वास्तविक महिमा को घटनाने वाले थे। यजुर्वेद का भाष्य वह पूरा कर चुके थे। ़ऋग्वेद के 10 मण्डलों में से 6 मण्डलों का भाष्य उन्होंने पूरा किया और सातवें मण्डल का भी अधिकांश भाग वह पूरा कर चुके थे। स्वामी जी आम नागरिकों को जो वदोपदेश देते थे वह ऐतिहासिक दृष्टि से अपूर्व होते थे। लोग उनके उपदेशों को सुनकर भाव विभोर होते थे और अनेकों की आत्मा उन्हें सत्य अनुभव करती थी। वह ऋषि दयानन्द जी के अनुयायी बन जाते हैं। ऐसे अनुयायी लोगों की संख्या में वृद्धि होती रही जिस कारण लोगों के निवेदन करने पर महर्षि दयानन्द ने मुम्बई के काकड़वाडी क्षेत्र में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की। इसके बाद अनेकों स्थानों पर आर्यसमाज की स्थापनायें होने लगी। ऋषि दयानन्द जी का मिशन वेदज्ञान प्रचार व अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञान का नाश करना था। अतः आर्यसमाजें स्थापित होकर वह ऋषि के कामों को गति दें, यह ऋषि दयानन्द जी को अभीष्ट था। यह कार्य उत्तरोत्तर सफलता को प्राप्त हो रहा था। आर्यसमाज के अनुयायियों में वृद्धि हो रही थी जिससे पौराणिक सनातन बन्धु व विधर्मी स्वामीजी के प्रति द्वेष भाव रखने लगे थे। अंग्रेज सरकार के भी ऋषि द्वारा ईसाई मत के खण्डन से प्रसन्न होने का प्रश्न ही नहीं था। अतः सभी स्वामी जी के बढ़ते प्रभाव व प्रचार कार्य को रोकना चाहते थे। अन्ततः वह उसमें सफल भी हुवे। जोधपुर में उन्हें प्राणघातक विष दिया गया जिससे अजमेर में 30 अक्तूबर, सन् 1883 को उनकी मृत्यु हो गई। इस षडयन्त्र में किन लोगों की क्या क्या भूमिकायें थी, हम समझते हैं कि वह सामने नहीं आ सकी। स्वामीजी यदि कुछ वर्ष और जीवित रहते तो और अधिक वेद प्रचार करते और और अधिक अविद्या दूर होती। उनके द्वारा और अधिक ग्रन्थ लिखे जाते और उनके साक्षात अनुयायियों की संख्या में भी और वृद्धि होती। यह सन्तोष का विषय है कि स्वामी जी के बाद उनके अनुयायियों ने उनके मिशन को पूरा करने का कार्य जारी रखा। यह मिशन हम समझते हैं कि वेद प्रचार का कार्य केवल स्वामी दयानन्द जी का नहीं अपितु ईश्वर का मिशन भी है। ईश्वर भी चाहते हैं कि संसार में वेद प्रचार हो और मनुष्य अविद्या से मुक्त हों। इस पर भी अज्ञानी व स्वार्थी मतानुयायियों व उनके आचार्यों ने लोगों को अविद्या में बांध व जकड़ रखा है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है। ईश्वर जीवों को कर्मों का फल प्रदाता है। हम आशा करते हैं कि जिस प्रकार से संसार में ज्ञान की वृद्धि हो रही है, उससे कभी ऐसा समय आ सकता है कि जब लोग मिथ्या मत-मतान्तरों से उब जायें और सत्य मत ‘वेद मत’ की शरण में आयें। इसके लिए आर्यसमाज व ऋषि के अनुयायियों को वेदों का प्रचार जारी रखना होगा और वेद, वेदभाष्य और सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषि ग्रन्थों, दर्शन व उपनिषदों समस्त वैदिक साहित्य की रक्षा भी करनी होगी। भविष्य में क्या होगा व क्या नहीं होगा, यह निश्चय से कहा नहीं जा सकता? महाभारत के बाद देश में जो परिस्थितियां बनी और आज भी हैं, उसके बारे में महाभारत के समय के आर्य विद्वानों ने शायद सोचा भी नहीं होगा। अब जो रहा है उसके आधार पर भी भविष्य का ठीक ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अस्तु।
शिवरात्रि के दिन और अपनी बहिन और चाचा की मृत्यु से ऋषि को जो बोध व वैराग्य हुआ उससे देश व विश्व को लाभ हुआ। वेदों का पुनरुद्धार हुआ। वेदों के सरल संस्कृत व हिन्दी भाष्य मिले। सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसे अनेक ग्रन्थ मिलें। आर्य विद्वानों का विभिन्न विषयों पर महत्वपूर्ण साहित्य मिला जिससे संसार को सच्चा वेदज्ञान उपलब्ध हो सका है। कहीं न कहीं प्रचार की कमी ही कही जा सकती अन्यथा वेदमत पुनः विश्व के मानवमात्र का धर्म बन सकता है। ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ ने देश व विश्व में सत्य वैदिक धर्म की प्रमाण, तर्क व युक्तियों से स्थापना कर दी है। अब देखना यह है कि विश्व कब समग्र रूप में वैदिक धर्म को स्वीकार करता है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य