ग़ज़ल
इक रोशनी की कैद में रहता हूँ इन दिनों
लहरों के साथ-साथ मैं बहता हूँ इन दिनों
सुनते ही जिसको ध्यान में खो जाये आदमी
गजलें उसी मिजाज की कहता हूँ इन दिनों
बालू से जो फिसल गये रंगों से उड़ गये
खुशबू के वे तमाम पल गहता हूँ इन दिनों
कुछ सिलवटें वजूद पर पड़ना है लाजिमी
चादर मैं ताम-झाम की तहता हूँ इन दिनों
जो ‘शान्त’ है शरीफ है ईमानदार है
उसका हर एक जुल्म मैं सहता हूँ इन दिनों
— देवकी नन्दन शान्त