लेख– सिर्फ़ इतिहास का ज़िक्र करके वर्तमान नहीं सुधारा जा सकता
वर्तमान राजनीति का शाश्वत सत्य यह है, कि वह आज के दौर में झूठ की नींव पर ख़डी हो रहीं है। ऐसे में चिंता की बात यह नहीं है, कि सत्ता पाने के लिए राजनेता झूठ और फ़रेब का सहारा ले रहे। चिंतन और मनन की बात तो यह है, कि राजनीतिक परिदृश्य में अब सत्तारूढ़ होने के बाद भी अवाम को गुमराह किया जा रहा है। इतिहास के गड्डे मुर्दे उखाड़कर जनता को राजनीतिक रूप से दिग्भ्रमित किया जा रहा है, जिससे कि अवाम वर्तमान रहनुमाई व्यवस्था से प्रश्न न पूछ सकें, जो चिंता का विषय है। इतिहास बताता है, कि हिटलर का एक प्रचार मंत्री गोयबोल्स था। जो कहता था, कि अगर एक झूठ को सौ बार बोला जाए, तो वह सच बन जाता है। आज हमारी रहनुमाओं व्यवस्था उसी ढ़र्रे पर बढ़ चली है, जो स्वस्थ राजनीतिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था में जायज़ नहीं। अगर आज राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होकर राजनीतिक दल के लोग हमारी एकता, अखण्डता, धर्म निरपेक्षता को खंडित करके आर्थिक व सामाजिक असमानता दूर न कर पाने की कमियों और इसके साथ शिक्षा औऱ रोजगार उपलब्ध न करा पाने की अपनी नाकामयाबियों को ढकना चाहते हैं, तो यह लोकतंत्र के साथ भद्दा मज़ाक है।
राजनीति से नैतिक मूल्यों एवं सिद्धान्तों का निरंतर हस होना चिंता का विषय है। धर्म और राजनीति दोंनो अलग-अलग महत्व का विषय है, यह हमारी रहनुमाई व्यवस्था क्यों नहीं समझती। विभिन्न धर्म, खान-पान, वेशभूषा ही हमारी संस्कृति है तथा यही हमारी पहचान है। फ़िर इन सांस्कृतिक विशेषताओं को बिदकाकर राजनीतिक दल अपनी राजनीति क्यों खेलना चाहते हैं, यह समझ से परे है। राजनीति करने के औऱ भी तरीक़े होते हैं, वह सियासतदां क्यों नहीं समझते। धर्म और खान-पान देश के विभिन्न समुदायों का अलग-अलग हो सकता है, लेकिन राजनीति के लिए देश के सभी मानव एकसमान होने चाहिए। इसके साथ राजनीति का अर्थ ही समाज का हित और विकास करना होता है, यह रहनुमाई व्यवस्था क्यों नहीं समझना चाहती। अगर वह यह समझती तो देश में जाति-धर्म आधारित राजनीतिक दलों का लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रस्फुटन नहीं होता। इतना ही नहीं आज लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहनुमाई व्यवस्था सत्तारूढ़ होने की फ़िक्र में मदांधता का शिकार हो गई है, कहानी इतनी नहीं उससे आगे की है। आज के दौर में यह कहना ग़लत न होगा, कि सियासतदां हर बात को अपनी निगाह से देखते हैं, औऱ अपने फ़ायदे के हिसाब से उसका अर्थ तक बदल देते हैं। फ़िर उससे चाहें समाज को क्षति पहुँचे, या इतिहास और व्यवस्था धूल-धूसरित होकर चकनाचूर हो जाए, उन्हें उसकी तनिक फ़िक्र कहाँ। ऐसे में जब राजनीतिक स्वार्थ के लिए यहीं बात झूठ औऱ फ़रेब की चाशनी में नहाकर बाहर निकलती है। तब सामाजिक व्यवस्था को तो कमजोर करती ही है, सुंदर इतिहास को भी प्रभावित करने के साथ वर्तमान औऱ भविष्य को भी प्रभावित करती है।
आज के दौर में सबसे बड़ा प्रश्न यहीं होना चाहिए, कि इतिहास की बात करने से क्या बेरोजगारी दूर होगी, क्या उससे कश्मीर समस्या का हल निकलेगा, क्या उससे एक भारत, श्रेष्ठ भारत का सपना साकार होगा, नहीं न, फ़िर बार बार रहनुमाई व्यवस्था के कुछ कलाकार इतिहास में गोते क्यों लगाने लगते हैं। आज की वर्तमान समस्याएं और इतिहास की समस्याओं का हल भी आज के दौर में सार्थक पहल करने पर ही निकलेगी, फ़िर बार-बार इतिहास को क्यों नापा औऱ तौला जाता है। और जब इतिहास को राजनीतिक नज़र आज के बंटखरे से तौलती है, फ़िर एक महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या कारण है, कि इतिहास की ग़लत व्याख्या करने वालों की जुबां बंद करने की कोशिश नहीं की जाती? जनता राजनीति को आईना दिखाने का कार्य करती है, तो क्या बीते कुछ समय से अवाम अपना यह गुण भूल गई है? अगर रहनुमाई व्यवस्था इतिहास से खेलकर अपनी वर्तमान राजनीति चमकानी चाहती है, तो उससे सिर्फ़ यहीं उद्देश्य पूर्ण हो सकता है। फ़िर सामाजिक विकास और समाज से जुड़े अन्य मुद्दे गूढ़ हो जाएंगे। बीते कुछ वर्षों से तत्कालीन परिवेश में राजनीति में सार्थक पहलुओं पर बहस का स्तर गिरा है, जो कमजोर होते लोकतांत्रिक व्यवस्था का परिचायक है, साथ में जनमानस के मुद्दों से बचने की नई जुगत। आज चुनावी छलावे और आज़ादी के सारथी बने नेताओं को निशाना बनाने की दिशा में राजनीति बह चली है, जो सिर्फ़ सत्ता में बने रहने के लिए इतिहास का भर्मित प्रचार ही है। इससे अधिक कुछ नहीं।
कभी सरदार पटेल और नेहरू की तुलना, कभी नेहरू औऱ नेताजी सुभाषचंद्र के बीच वैमनस्य होने का वितंडा खड़ा करने से आज के परिवेश का भारत महान नहीं होगा। देश के लिए इन विभूतियों ने काम करके इतिहास में नाम दर्ज कराया, फ़िर उनको व्यर्थ में बदनाम करने की फ़ितरत से देश को आज़ाद करना होगा। बंगाल में चुनाव सन् 2016 में हुए। उसके पहले तक लगभग एक अभियान जारी था कि नेताजी की मृत्यु की बात को नेहरू छिपा रहे हैं। मीडिया में इसके लिए कई तरह के इतिहासकारों के बयान आए। एक अभियान चला। इसके साथ यह बात फैलाने की कोशिश भी जाती रही, कि नेहरू को नेताजी से भय था। अगर ऐसा होता तो नेताजी ने अपनी इंडियन नेशनल आर्मी की एक ब्रिगेड का नाम नेहरू ब्रिगेड क्यों रखा था, इसके अलावा नेहरू ने आईएनए के जवानों को सजा से बचाने के लिए नेहरू बैरिस्टर का चोला क्यों पहना था। ये बातें सिर्फ़ इत्तफाक औऱ दिखावे की राजनीति तो हो नहीं सकती। इसके अलावा एक औऱ राजनीतिक द्वंद्व आज के दौर में फैलाया जा रहा है, कि अगर सरदार पटेल आज़ादी के वक्त प्रधानमंत्री होते तो देश की आज स्थिति कुछ ओर होती, हो भी सकती थी, लेकिन अब उस पर चर्चा करने से क्या फ़ायदा, जब चिड़िया चुग गई खेत।
7 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में कहा कि सरदार पटेल प्रथम प्रधानमंत्री हुए होते तो कश्मीर हमारा होता। फ़िर इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने जो लिखा है, उसका क्या मतलब निकाला जाए, कि एक वक्त ऐसा भी आया था, जब जूनागढ़ और हैदराबाद को भारत में जोड़ने के बदले पाकिस्तान को कश्मीर देने के लिए पटेल तैयार हो गए थे। सोशल मीडिया के इस युग में धारणाओं को बदलना कितना सरलीकृत हो गया है, इससे सभी वाक़िफ़ हैं। फ़िर सिर्फ़ अगर सत्ता में बने रहने के लिए या सत्ता हथियाने के लिए ऐसी बिसात बिछाई जाती है, तो यह सही नहीं। अवांतर तथ्यों के बल पर देश को बरगलाने और भरमाने की राजनीति छोड़कर आज के वक्त के जरूरी मुद्दों पर बहस होनी चाहिए, औऱ राजनीति का धर्म भी यहीं कहता है, कि द्वेष औऱ फ़रेब से ऊपर उठकर जनहितार्थ की बात करना ही राजधर्म होता है, उस परिपाटी को हमारी आज की सियासी परिपाटी क्यों भूलती जा रहीं है।