वर्णसंकर
महाराज शान्तनु भीष्म पितामह के पिता थे। वे हस्तिनापुर के सम्राट थे। उनकी पहली पत्नी गंगा से देवव्रत पैदा हुए जो अपनी भीष्म प्रतिज्ञा के लिए भीष्म नाम से प्रसिद्ध हुए। वे महान पराक्रमी, धर्मज्ञ और शास्त्रों के ज्ञाता थे। महाराज शान्तनु ने उन्हें हस्तिनापुर के युवराज के पद पर अभिषिक्त भी कर दिया था। अचानक बुढ़ापे के उस चरण में जिस समय पुत्र का ब्याह करके आदमी पुलकित होता है, शान्तनु को प्रेम-रोग हो गया। वे एक केवट-कन्या सत्यवती पर मोहित हो गए और उससे प्रणय-निवेदन कर बैठे, लेकिन सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा। देवव्रत पहले ही युवराज घोषित किए जा चुके थे। शान्तनु ने शर्त नहीं मानी और अपनी राजधानी लौट आए, लेकिन सत्यवती को न पाने का मलाल इतना अधिक था कि वे बीमार रहने लगे। शीघ्र ही देवव्रत ने कारण पता कर लिया और स्वयं अपने पिता के लिए सत्यवती का हाथ मांगने के लिए केवट के पास पहुंच गए। केवट ने अपनी शर्त फिर दुहराई। देवव्रत ने शर्त मानते हुए यह प्रतिज्ञा की कि वे आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे ताकि भविष्य में सिंहासन के लिए कोई संघर्ष न हो। इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत भीष्म कहलाए और इसी नाम से जगप्रसिद्ध हुए। शान्तनु को सत्यवती मिल गईं। भीष्म पितामह ज़िन्दगी भर कुंवारे रहे और सिंहासन की रक्षा करते रहे। सत्यवती से शान्तनु को दो पुत्र प्राप्त हुए — विचित्रवीर्य और चित्रांगद। बुढ़ापे की सन्तान होने के कारण दोनों बचपन से ही कमजोर और अस्वस्थ थे। जब वे किशोरावस्था में पहुंचे, उसी समय महाराज शान्तनु की मृत्यु हो गई और चित्रांगद एक युद्ध में मारा गया। राजसिंहासन पर विचित्रवीर्य को बैठाया गया। सारी व्यवस्था भीष्म संभालते थे। वंश चलाने के लिए विवाह की आवश्यकता थी लेकिन विचित्रवीर्य के स्वास्थ्य को देखते हुए कोई राजा अपनी कन्या उन्हें देने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। अन्त में भीष्म पितामह ने काशीराज के यहां चल रहे स्वयंवर से उनकी तीन कन्याओं — अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अम्बा को स्वतंत्र कर दिया तथा अम्बिका एवं अम्बालिका से विचित्रवीर्य का विवाह कर दिया। विचित्रवीर्य तो अस्वस्थ रहते ही थे, विवाह के बाद अतिशय भोग के कारण उन्हें क्षयरोग हो गया और वे बिना सन्तान उत्पन्न किए स्वर्गवासी हो गए। भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से बंधे होने के कारण विवाह कर नहीं सकते थे, वंश आगे बढ़े तो कैसे। सत्यवती को यह चिन्ता खाए जा रही थी। ऐसे में उन्होंने कुंवारे में उत्पन्न अपने पुत्र व्यासजी को बुलवाया और उनसे अपनी अनुज-वधुओं से संपर्क कर सन्तान उत्पन्न करने का आग्रह किया। व्यासजी ने माता का आग्रह स्वीकार किया। यही से कुरुवंश के पतन की पटकथा लिख दी गई। अनुज-वधू पुत्री के समान होती है। त्रेता में श्रीराम ने अनुज-वधू को पत्नी बनाने के अपराध को इतना बड़ा माना था कि उन्होंने बाली का वध तक कर दिया। हस्तिनापुर में व्यासजी और अनुजवधूओं के संपर्क से दो पुत्र उत्पन्न हुए — धृतराष्ट्र और पांडु। ये दोनों ही वर्णसंकर थे। महाभारत की आगे की कथा इन वर्णसंकरों के पुत्रों के आपसी विवाद और संघर्ष की है जिसका अन्तिम परिणाम महायुद्ध के रूप में सामने आया और विजयी पक्ष को दुःख, आंसू और सर्वनाश के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
आज भी महान भारत वर्णसंकर-संस्कृति से प्रभावित नज़र आ रहा है। जब राजा वर्णसंकर हो जाता है तो देश, धर्म और प्रजा का विनाश सुनिश्चित हो जाता है। राहुल गांधी की कांग्रेस-अध्यक्ष पद पर ताजपोशी पर जो लोग बहुत प्रसन्न हैं, उन्हें महाभारत की उपरोक्त कथा को एकबार अवश्य पढ़ना चाहिए। कांग्रेस में चरित्र-निर्माण कभी भी प्राथमिकता की सूची में नहीं रहा है। महात्मा गांधी निर्वस्त्र युवतियों के साथ सोते थे और अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा स्वयं लेते थे। बुढ़ापे मे लेडी माउण्टबैटन के प्रेम में पंडित नेहरू के पागल होने की कीमत देश को विभाजन और कश्मीर समस्या के रूप में चुकानी पड़ी। इन्दिरा गांधी ने फिरोज़ खां से शादी करके वर्णसंकर सन्तानें उत्पन्न की। उनके पुत्रों — राजीव और संजय ने भी यह परंपरा कायम रखी। राहुल गांधी खानदानी वर्णसंकर हैं। अगर नरेन्द्र मोदी २०१९ का चुनाव हार गए तो दिल्ली के सिंहासन पर एक वर्णसंकर की ताजपोशी अवश्यंभावी है। लगता है इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करके मानेगा। पर तब एक और महाभारत भी कोई रोक नहीं सकता है।
जो लोग वर्णसंकर नहीं होते वे भी देश और समाज के लिए भयावह सिद्ध हो सकते हैं।