लघुकथा

लघुकथा – अनमोल सीख

अपने दसवर्षीय शरारती नटखट बेटे किशन को ढूढ़ती हुई माँ वृंदा काफी परेशान हो रही थी। बेटे किशन का मन पढ़ाई में बिल्कुल नहीं
लगता था। उसने अपने बेटे पढ़ाने के लिए घर पर मास्टर भी रखी हुई थी। मास्टर जी के पढ़ाने आने का समय हो रहा था इसलिए माँ वृंदा
बार-बार घर के द्वार से बाहर सड़क की ओर झांक रही थी। घर के द्वार का दरवाज़ा टूटा हुआ था जिसे इक्कीस-बाईस साल का एक नवयुवक मिस्त्री ठीक कर रहा था। वृंदा को यूँ बार-बार परेशान हो आता जाता देखकर नवयुवक मिस्त्री वृंदा से पूछ बैठा- ‘मालकिन आप बार-बार बाहर की तरफ क्या ढूंढ रही हो ‘? उसकी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वृंदा ने कहा- ‘न जाने मेरा बेटा किशन कहाँ चला गया उसे पढ़ाने के लिए टीचर जी आने वाले हैं।’ वृंदा के जबाब को सुनकर मिस्त्री हँसकर वृंदा से बोला- ‘मालकिन आप बेकार परेशान हो रही हैं बच्चे का भी तो कभी कभी खेलने का मन करता होगा न आज- कल के माँ बाप तो हर वक्त अपने बच्चों को पढ़ने के लिए ही परेशान करते हैं।’ मिस्त्री की बात को सुनकर वृंदा गुस्से से बोली- ‘तुझे क्या मालूम एक माँ को अपने बच्चे के लिए कितनी चिंता होती है उसे क्या मैं तेरे जैसा बनाउंगी।’
वृंदा की इस चिड़-चिड़ी बात को बात को सुनकर नवयुवक मिस्त्री वृंदा को समझाते हुए बोला- ‘मालकिन आप तो एक माँ हैं आप अपने बच्चे को जैसा सिखाएंगी और जैसी परवरिस देंगी वो वैसा ही बनेगा। बच्चा तो कच्ची मिट्टी की तरह होता है उसे सही सांचे साँचे में आपको ही ढालना है।’ दरवाज़े की मरम्मत खत्म होते ही वह मिस्त्री अपनी मेहनताना के पैसे लेकर उसे सबसे पहले अपने माथे से लगाया फिर उसे चूमकर अपने घर की ओर चल पड़ा। और माँ वृंदा नवयुवक मिस्त्री से अपने किए हुए दुर्व्यवहार से लज्जित बोध के साथ उसे जाते हुए एकटक वहीं खड़ी देखती रही। जाते-जाते वह नवयुवक मिस्त्री वृंदा को जीवन का एक बहुमूल्य सीख दे गया।

विनीता चैल 

विनीता चैल

द्वारा - आशीष स्टोर चौक बाजार काली मंदिर बुंडू ,रांची ,झारखंड शिक्षा - इतिहास में स्नातक साहित्यिक उपलब्धि - विश्व हिंदी साहित्यकार सम्मान एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित |