ईश्वर को कौन प्राप्त कर सकता है?
ओ३म्
आज का संसार प्रायः भोगवादी है। संसार के लोगों की इस संसार के रचयिता को जानने में कोई विशेष रूचि दिखाई नहीं देती। सब सुख चाहते हैं और सुख का पर्याय धन बन गया है। इस धन का प्रयोग मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास, वाहन, यात्रा व बैंक बैलेंस में वृद्धि आदि कार्यों को करने में लगे रहते हैं। इन्द्रियों के सुख के पीछे सभी दौड़ रहे हैं और इसे पूरा करने के लिए अनेक प्रकार के व्यवहार करते हैं। ऐसा करते हुए लोग ईश्वर व अपनी आत्मा को भुला देते हैं। क्या ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान मनुष्य के लिए आवश्यक नहीं है? यदि है तो यह बच्चों को पुस्तकों वा विद्यालयों में क्यों पढ़ाया नहीं जाता। इस पर लोग आपस में कभी चर्चा क्यों नहीं करते? एक दूसरे व विद्वानों के पास जाकर ईश्वर व जीवात्मा विषयक अपनी शंकायें क्यों नहीं बताते और उनके समाधान क्यों नहीं पूछते हैं, ऐसा इस लिये हो रहा है कि आज की बाल-युवा-वृद्ध पीढ़ी इन प्रश्नों को जानना उचित नहीं समझती। उसने विदेशियों से यही सीखा है कि खाओ, पियो और जीवन का आनन्द लो। इसी का अनुसरण करते हुए सभी दिखाई दे रहे हैं। यह वाममार्गी सोच है जो बहुत ही हानिकारक है।
यह एक तथ्य व वास्तविकता है कि संसार में ईश्वर की सत्ता है। उसी ने इस संसार को रचा व बनाया है। यदि वह न होती तो यह संसार कैसे बनता? अर्थात् बन ही नहीं सकता था। जड़ पदार्थ के परमाणु स्वयं नहीं बन सकते और उन परमाणुओं से संसार में विद्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, लोक लोकान्तर भी स्वंय नहीं बन सकते। जो लोग ऐसा मानते हैं कि यह संसार स्वयं बनता व बिगड़ता है, इसका कारण उनकी अविद्या व अल्पज्ञान है। विद्या तो यही बताती है कि सभी रचनाओं का रचयिता ़़व सभी कृतियों का कर्त्ता अवश्य ही हुआ करता है। दर्शन ग्रन्थ में इन विषयों पर विचार किया गया है और सिद्ध किया गया है कि यह संसार मूल जड़ पदार्थ प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक है, उसके अत्यन्त सूक्ष्म कणों से, जो आंखों से नहीं देखे जा सकते, उनसे परमाणु और अणु आदि बनकर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट बुद्धि व शक्ति से पूर्व कल्पों के अनुसार यह सृष्टि ईश्वर के द्वारा बनाई गई है। सृष्टि रचना का कार्य अपौरुषेय है अर्थात् इस कार्य को मनुष्य अकेले व सभी मिलकर भी नहीं कर सकते। जब सृष्टि को पूर्णतयः जान ही नहीं सकते तो उसकी रचना करने का तो प्रश्न ही नहीं है। प्रकृति के सत्व, रज व तम गुण वाले सूक्ष्म कणों को जब देखा ही नहीं जा सकता तो उनसे सृष्टि निर्माण करना तो मनुष्यों के लिए कदापि सम्भव हो ही नहीं सकता। अतः यह सृष्टि एक ऐसी सत्ता ने बनाई है कि जो सत्य व चित्त सहित आनन्द गुणों से युक्त है। इन गुणों के कारण ही उसे सच्चिदानन्द कहते हैं। वह सत्ता निराकार, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, अनन्त, नित्य, अविनाशी, अजर, अमर, पवित्र ही हो सकती है। यही ईश्वर का सत्यस्वरूप है। ईश्वर के इस सत्यस्वरूप पर सभी मनुष्यों वा मत-मतान्तरों के आचार्यों व अनुयायियों को एकमत होना चाहिये परन्तु अपनी अपनी अविद्या व स्वार्थों के कारण वह इस तर्क एवं युक्तिसंगत सिद्धान्त के प्रति अपनी निष्ठा व विश्वास प्रदर्शित नहीं करते। इसे हम वर्तमान युग का आश्चर्य ही कह सकते हैं।
ईश्वर का होना इस लिए आवश्यक है कि सृष्टि का निर्माण व मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म, उनकी मृत्यु व पुनर्जन्म की व्यवस्था, उनके कर्म फलों का ज्ञान व उसके अनुसार उन्हें भोग प्रदान करना, सृष्टि का पालन करना व सृष्टि की अवधि पूरी होने पर इसकी प्रलय करना आदि इन कार्यों को ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। अतः ईश्वर का होना व इन गुणों व कार्यों को इस सृष्टि में करने वाली सत्ता को ही ईश्वर कहते हैं। ऋषि दयानन्द सरस्वती जी वेदों के विद्वान थे और वह अपूर्व तार्किक, सत्यान्वेषी, साधक और सत्य को ग्रहण व असत्य का त्याग करने वाले महापुरुष थे। उन्होंने अपने ज्ञान व अनुभव सहित वेद व ऋषियों द्वारा रचित सत्य वैदिक साहित्य के आधार पर ईश्वर की एक परिभाषा दी है। वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उसी ईश्वर की उपासना करनी सब मनुष्यो को योग्य व आवश्यक है। विचार करने पर हमें ईश्वर की यह परिभाषा सर्वोत्तम व सर्वोत्कृष्ट प्रतीत होती है। ईश्वर के जिन गुण, कर्म व स्वभाव का वर्णन वेदों में है और जिनका ऋषि दयानन्द ने उल्लेख किया है, वह सत्य व यथार्थ हैं, अनर्थक नहीं हैं। यह समस्त सृष्टि ईश्वर की रचना है, स्वमेव बनी हुई नहीं है।
जीवात्मा के गुणों वा स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि जीवों में यह गुण विद्यमान हैं यथा पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, दुःखादि की अनिच्छा, वैर, पुरुषार्थ, बल, सुख वा आनन्द, दुःख, विवेक ज्ञान, प्राणवायु को बाहर निकालना, प्राण को बाहर से भीतर को लेना, आंख को मींचना, आंख को खोलना, प्राण को धारण करना, निश्चय स्मरण और अहंकार करना, गति, सब इन्द्रियों को चलाना, भूख, प्यास, हर्ष व शोकादियुक्त होना। जीवात्मा के इन गुणों से आत्मा की प्रतीती करनी। आात्मा स्थूल नहीं अपितु सूक्ष्म है, यह स्मरण रखना चाहिये। ऋषि यह भी लिखते हैं कि जब तक आत्मा शरीर में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ चला जाता है तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हों और न होने से न हों वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशदि का न होना और होने से होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का ज्ञान गुणों के द्वारा होता है। संक्षेंप में हम यह भी कह सकते हैं कि जीवात्मा सत्, चित्त, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, पवित्र स्वभाव वाली, एकदेशी, अल्प, अल्पज्ञ, ससीम, जन्म-मरण में बन्धा हुआ, कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अधीन वा परतन्त्र है। मनुष्य योनि में मृत्यु होने के बाद इसका पुनर्जन्म अवश्य होता है। सन्ध्या, स्वाध्याय, यज्ञ-अग्निहोत्र आदि शुभ कर्मों को करके यह मोक्ष को भी प्राप्त होता है।
मनुष्य का जीवात्मा अल्पज्ञ होने से अल्प गुणों वाला है। इसे ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय व ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी होती है। स्तुति, प्रार्थना व उपासना से मनुष्य में शुभ गुणों की वृद्धि व अशुभ गुणों की निवृत्ति होती है। इसका उदाहरण देते हुए ऋषि ने कहा है कि जिस प्रकार से शीत से आतुर मनुष्य का शीत अग्नि को प्राप्त होने पर दूर हो जाता है उसी प्रकार से दुर्गुण व दोषों से युक्त मनुष्य के सभी दोष आदि ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना आदि से दूर हो जाते हैं। इतना ही नहीं आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि वह मृत्यु रूपी व इसके समान पहाड़ के समान दुःख प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है। महर्षि पूछते हैं कि उपासना से होने वाला यह लाभ क्या छोटी बात है? हमारे लेख का शीर्षक है कि ईश्वर को कौन प्राप्त कर सकता है? इसके लिए हम वेद के एक मन्त्र का आशय प्रस्तुत कर रहे हैं। वेद मन्त्र में मनुष्य की ओर से कहा गया है कि मैं ईश्वर को जानता हूं जो कि महानतम् पुरुष अर्थात् पुरुष विशेष है। वह ईश्वर सूर्य के समान वर्ण वाला अर्थात् सूर्य के समान प्रकाशमान तथा अन्धकार से सर्वथा रहित है। उस ज्ञानस्वरूप परमात्मा को जान कर वेद व योग के साधक मृत्य के पार, मोक्ष को, प्राप्त होते हैं। वेदाध्ययन के अतिरिक्त ईश्वर को जानने व प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग व उपाय नहीं है। इससे यह ज्ञात होता है कि वेदों के अध्ययन व तदनुरूप कर्मों वा आचरण से मनुष्य ईश्वर को जानकर उसे प्राप्त हो जाता है और इससे वह मोक्ष का अधिकारी बनकर उसे भी प्राप्त कर लेता है।
मुण्डकोपनिषद् का वचन ‘भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे पराऽवरे।।’ अर्थात् जब इस जीवात्मा के हृदय की अविद्या–अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है, तब सब संशय छिन्न हो जाते हैं। उसके दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं और तभी उस परमात्मा, जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहा है, जीवात्मा उसमें निवास करता व उसे प्राप्त हो जाता है। इसका एक अर्थ ईश्वर को देखना भी कहा जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में यह भी लिखा है कि जब जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य ज्ञान और अनन्त आनन्दस्वरूप परमात्मा को जानता है, वह उस व्यापकरूप ब्रह्म में स्थित होके उस अनन्तविद्यायुक्त ब्रह्म के साथ सब कामों को प्राप्त होता है। अर्थात् जीव वा आत्मा जिस-जिस आनन्द की कामना करता है, उस-उस आनन्द को प्रापत होता है। योगदर्शन में योग के सातवें व आठवें अंग को ध्यान व समाधि के रूप में जाना जाता है। जब साधक का ध्यान स्थिर हो जाता है तब वह समाधि में प्रविष्ट हो जाता है। समाधि में आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार व उसका निर्भ्रान्त ज्ञान होता है। समाधि अवस्था में ही ईश्वर को पाया जाता है। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए वेदों का अध्ययन व तदनुरूप ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है। इस ज्ञान से मनुष्य जब योग साधना में प्रवृत्त होता है तो योग के अष्टांगों को सिद्ध करने पर समाधि अवस्था में वह ईश्वर का साक्षात्कार कर ईश्वर को प्राप्त हो जाता है। यह विवेक एवं जीवन मुक्त अवस्था कही जाती है। इसके बाद मनुष्य को फिर कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता। अतः वेदाध्ययन व वेदाचरण से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त होता है, यह ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त मत-मतान्तरों में ईश्वर प्राप्ति के जो वेद-विरुद्ध मार्ग बतायों गये हैं उनसे ईश्वर प्राप्त नहीं होता, ऐसा हम अनुभव करते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य