कविता

चलो मिलकर होली मनाते हैं ।

चलो पुरानी रंजीसे भूल जाते हैं
धुन प्यार का गुनगुनाते हैं
और कोई न बच पाये इस होली में
चलो मिलकर होली मनाते हैं।
जात धर्म मजहब को एक बनाते हैं
हिन्दू-मुस्लिम सिख सब एक हो जाते हैं
द्वेष -भावना सारे अपने मिटाते हैं
चलो मिलकर होली मनाते हैं।
घृणा, अहंकार, पाप, क्षोभ, ईर्ष्या
लोभ और ‘मैं’ को होली में जलाते हैं
आज मिलकर गले, खुशियाँ मनाते हैं
चलो मिलकर होली मनाते हैं ।
करके पानी की बचत
सुखे अबीर गुलाल उड़ाते हैं
जो नहीं खेले अब तक होली
उनको भी आज सराबोर कर जाते हैं
चलो मिलकर होली मनाते हैं ।
धरती रंगीन और अम्बर को रंग जाते हैं
इस होली में पानी को उपहार दे जाते हैं
भेद-भाव की भावना को दूर भगाते हैं
चलो मिलकर होली मनाते हैं ।

संतोष कुमार वर्मा

हिंदी में स्नातक, परास्नातक कोलकाता, पश्चिम बंगाल [email protected]