“मुक्तक”
माटी मह मह महक रही है, माटी की दीवाल रे।
चूल्हा माटी बर्तन माटी, माटी में शैवाल रे।
ऐ माटी तू कहाँ गई रे, आती नहिं दीदार में-
माटी माटी ढूढ़ें माटी, माटी में कंकाल रे॥-1
कौन उगा है बिन माटी के, अंकुर है बेहाल रे।
खोद रहे सब अपनी माटी, माटी सम्यक माल रे।
माटी बिना पहाड़ पहुँच क्या, सूखे माटी गाँव में-
विचलित हरियाली माटी की, मैना झूले डाल रे॥-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी