ग़ज़ल
ज़िन्दगी में ख़ैरियत का सिलसिला कुछ भी नहीं,
हम उसूलों पर चलें हैं सिरफिरा कुछ भी नहीं।
वक्त की पाबन्दियों में जल रहा हूँ रात-दिन,
दरबदर हूँ मैं भटकता माज़रा कुछ भी नहीं।
हर घड़ी बस याद रखनी है बड़ों की बात को,
ज्ञान की इन वादियों का दायरा कुछ भी नहीं।
हर तरफ अंधेर है यह रौशनी को क्या पता?
है जलाना दीप मुझको मसविरा कुछ भी नहीं।
हसरतों को तुम लिए दिल में उतरकर देख लो,
हसरतों का है तेरे बिन आसरा कुछ भी नहीं।।
— नवाब देहलवी