बासंती गीत – ऋतुराज बसंत
भीनी भीनी महक में डूबा, मन मतवाला बना पतंगा।
प्रेम भंवर में रचा बसा है, भंवरों का गुंजार मचा है।
आम्र शिखा पर कुहके कोयल, नदी बह रही- कल-कल; कल-कल।
झर बेरी से लाल-लाल; कितने-कितने ही,
गिर जाते अगणित मीठे फल; – प्रतिपल-प्रतिपल।
जिम्मेदारी विटप निभाते, सुंदर बन सबको मुसकाते,
ऋतु-ऋतु बारी बारी से; एक -एक कर आते जाते ।
कल देखा मैंने भी जाना; चुपके से ऋतुराज का आना,
भँवरों का गुंजार मचाना; बागों का खुशबू से नहाना।
ढाक, करौंदे, आम्र लदे है , सुमनों से अट गयी डालियाँ,
महुए से फैली मादकता, गेहूं कि पक गयी बालियाँ।
ढाक फूल स्वागत करते-से, इधर उधर बिखरे पड़े है,
श्रमिक,पथिक सब झूम-गा रहे, तेज कदम घर चले जा रहे।
सब पंछी उन्मुक्त गगन में- हर्षित,पुलकित,आनंदित है!
चिड़ियों कि चहकार मची है- मंद कुहकती कोयल काली।
शाम सुबह के दृश्य निराले, धरती की आभा मतवाली,
सभी प्रसन्न है,आनंदित है, मुख पर है सबके ही लाली।
आया है ऋतुराज बसंत, आ रही होली रंग-वाली,
मिलकर हम भी करें आराधन, सबकी कामना हो मतवाली।”
— धाकड़ हरीश