कविता

किसान की व्यथा

दुःख उसने कभी किसे कहा था
पीड़ा हर-पल झेल रहा था ।
जीवन भर स्वाधीन रहा…..
शासन भी है खेल रहा !!
अगणित बार धरा मुसकाई,
हाड़-तोड़ जी जान लगाई
सुख कि खेती हरी-भरी थी….
बरदों की जोड़ी खड़ी थी
हर-पल उसका साथ निभाते…
खेत जोतते फिर घर आते,
उसके दुःख में वो भी न खाते !!
बहुत मुश्किलें संकट आते….
खाने के लाले पड़ जाते,
सहते सहते दिन गुजारते !
दुःख उसने क्या कभी कहा है
इतना क्या हमने सहा है
आज ऐसा क्यों क्या हो गया
क्या रक्षक ही आज सो गया
रखवाला ही पथ-विमुख हो अनजाना सा हो जाता है
तभी किसान यह अन्नदाता वह;
भूखा प्यासा सो जाता है
किसे बताए अपनी बेबसी
किसे बताए लाचारी
जी तोड़ मेहनत करके जब ;
उपज अपनी मंडी ले जाता ……
कीमत उसकी लागत से भी ;
क्यों वह आधी केवल पाता
कौए नोंच नोंच खाते है.!!
मज़बूरी में घर लाते है !!!!
खुद के सामने खुद को बेचतें….
झुकी पीठ और दुःखी भाव है !
आज बैठा फिर वो उदास है
अन्धो की नगरी में बैठा ;
उजियारे की आस लगाये
अब तक उसने धैर्य धरा था …
इच्छा मर गयी वो न मरा था
आज जुबां खामोश हो गयी…..
मिली न रूखी , आँखे सूखी,
रोज रोज का तिल तिल मरना…
इससे अच्छा एकदम मरना !
अन्नदाता आज छोड़ गया था
प्रश्न चिह्न वो छोड़ गया था
क्या हुआ वो सही हुआ है
उसका जाना सही रहा है
हमसे अच्छे उसके बैल है !!!!
अंत समय जो रहे मेल है..
अंत समय भी यही बोलते –
मालिक तुम क्यों हमें छोड़ते
अबकी बार हम खूब लड़ेंगे
हाड़ -तोड़ मेहनत करेंगे
क्या गया किसान वापस आएगा
दुःख उसका कोई समझ पायेगा
क्या कभी परिवर्तन आएगा
अन्नदाता कभी मुसका पायेगा
— “धाकड़” हरीश

हरीश कुमार धाकड़

गांव पोस्ट स्वरूपगंज, तहसील-छोटीसादड़ी, जिला-प्रतापगढ़ (राजस्थान)