लेख– तमिल राजनीति क्या बर्दास्त कर पाएगा गैर-जातीय राजनीति
दक्षिण के सियासी दुर्ग पर एक बार फ़िर गहरा फ़िल्मी रंग चढ़ रहा है। इस बार तमिल की राजनीतिक भूमि पर कमल हासन औऱ रजनीकांत चहलकदमी करते दिख रहे हैं। बशर्ते रजनीकांत ने अभी अपनी पार्टी का एलान नहीं किया है, लेकिन कमल हासन ने अपनी पार्टी का एलान का सक्रिय राजनीति की तरफ़ कूच कर रहें हैं। हासन ने पार्टी का नाम मक्कल निधी मैयम रखा है, जिसका हिंदी नाम जन इंसाफ़ केंद्र है। वैसे एक नज़रिए से देखा जाए, तो तमिल दुर्ग काफ़ी लंबे वक्त से फ़िल्मी साए में ही राजनीतिक वर्तमान जी रहा, उसी को भुनाने का प्रयास अभी भी सुबे में जारी है। आज के दौर में यह कहना ग़लत न होगा, कि जो तमिलनाडु दशकों से शेष भारत से द्रविड़ राजनीति औऱ हिंदी के विरोध के कारण से कटा हुआ था। उस दूरी को आईपीएल औऱ फ़िल्मी दुनिया ने वर्तमान में दूर कर दिया है। जिसके कारण सूबे की सियासत से द्रविड़ राजनीतिक जमीं अब खिसक रही है। आज के वक्त में अम्मा के निधन के बाद से अभी तक उनकी कमी को तमिल सियासत पूरी नहीं कर पा रही। उसी सियासी बंजर भूमि पर अपना वजूद स्थापित करने के लिए रंगमंच के दो खिलाड़ी अपनी क़िस्मत अजमाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। कमल हासन ने अगर पार्टी गठन के वक्त ही भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की बात की है। तो इससे प्रभावित तमिलनाडु की सियासत के वर्तमान समय के सत्ताधारी औऱ विपक्ष दोनों होंगे। जिसका फायदा आने वाले वक्त में दूसरी पार्टियों को होगा।
वैसे कल हमारा है, का नारा देने वाले कमल हासन की आगामी राहे फूलों की सेज भी साबित नहीं होने वाली, क्योंकि अरविंद केजरीवाल के अलावा कोई विराट राजनीतिक शख्सियत उनके साथ अभी दिखती नहीं। अभी अगर देखा जाए, तो भले कमल हासन की राजनीतिक विचारधारा स्पष्ट नहीं, लेकिन ऐसा लगता है, कि उनकी राजनीतिक विचारधारा सेकुलरिज्म के आसपास ही रहने वाली है। साथ में अगर केजरीवाल शुरुआत से ही हासन के साथ ख़ड़े दिख रहे है, तो यह भी स्पष्ट है, कि कमल हासन युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के मंसूबे के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, औऱ केजरीवाल को साथ दिखाकर आप पार्टी का भ्रष्टाचार विरोधी होने का फ़ायदा भी उठाना चाहते हैं। तमिक की सियासत जैसे आज भ्रष्टाचार के आकंठ सरोवर में डूबी दिखती है, चाहें सत्तापक्ष हो, या विपक्ष। वैसे ही सियासत के सियासतदां भी सूबे के आकंठ रंगमंच की दुनिया से तालुकात ऱखने वाले सुबे में वर्षों से दिखते हैं। जिसका उदाहरण यह है, कि 1949 में डीएमके की स्थापना पठकथा लेखक अन्नादुरई ने की थी, उसके बाद तो सूबे की सियासत मे अभिनेताओं के नाम से अभि हटने का सिलसिला चल निकला। वैसे तमिलनाडु की राजनीतिक भूमि का लगाव फिल्मी सितारों से काफ़ी पुराना रहा है।
तमिल राजनीति में यह कहना अतिश्योक्ति न होगा, कि लोगों का फिल्मी सितारों के प्रति भावनात्मक, सामाजिक जुड़ाव के साथ राजनीतिक भविष्य भी ज्यादा सुरक्षित समझ में आता है। तभी तो पहले एमजी रामचंद्रन और बाद में जे. जयललिता फ़िल्मी दुनिया के बाद राजनीति का हिस्सा बनी। साथ ही साथ सत्ता की कुर्सी तक पहुँच भी बनाई। इसके इतर अगर एम.करुणानिधि के शुरुआती समय पर निगाहें डालें, तो पता चलता है, कि उन्होंने भी तमिल फिल्मों के लिए पटकथा लेखन से अपने जीवन की शुरूआत की थी। उसी राह पर अब रजनीकांत और कमल भी निकल पड़े हैं। इसके साथ जब एआईडीएमके में दो फाड़ होने के साथ बीते महीनों में जिस हिसाब से कनिमोझी और ए. राजा को घोटाले से बरी किया गया, उसके बाद दक्षिण की राजनीति ने नया मोड़ ले लिया है। जयललिता जहां अपने कार्यकाल के शुरूआती दौर से ही अपने बूते विकास और राजनीतिक कूटनीति पर चलते हुए ऐसा माहौल बनाया, कि तमिलनाड़ू की राजनीति ही क्या उनकी पार्टी में भी उनके बाद कोई बड़ा राजनेता खड़ा नजर नहीं आया। साथ में वर्तमान में भाजपा जिस अंदाजे -बयां में सियासीलीला को खेल रही है, उससे ऐसा अंदाजा लगाया जा सकता है, कि भाजपा असम की भांति दक्षिण के दुर्ग को भेदने की ओर नई रणनीति चल सकती है। वैसे कांग्रेस की बात की जाए, तो उसका वाजूद राष्ट्रीय स्तर पर जब नेतृत्व के अभाव में दरक रहा है, फिर क्षेत्रीय राजनीति में उससे कोई कारनामा करना टेड़ी खीर साबित होने वाला लगता है। कांग्रेस रणनीतियों को बनाने की कोशिश तो कर रही है, लेकिन लोगों का विश्वास कही न कही कांग्रेस की कार्यकुशलता और नीतियों से ताल्लुक़ात रखती नजऱ नहीं आती। वह बात चाहे राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में हो, या क्षेत्रीय राजनीति में नेतृत्व का अभाव साफ नजर आता है, फिर दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस को अपना वाजूद निर्मित करने में काफी समय लग सकता है।
वैसे डीएमके के एम करूणानिधि भी 93 साल के हो चुके है, फिर दक्षिण के दुर्ग को साधाने के लिए नई रणनीति और चेहरे की आवश्यकता महसूस की जा रही है, जिसके लिए द्रविड़ जाति को साधने वाले इन सियासी क्षेत्रीय दलों के पास चेहरे की कमी और लोकप्रियता स्पष्ट देखी जा सकती है। जिसे मोदी सरकार एक हद तक गरीबों और आम जनता में अपनी पैठ मजबूत करके साबित कर सकती है। जिस दिशा में भाजपा आगे बढ़ भी रही है। अम्मा की मौत के बाद से एआईडीएमके में दो फाड़ हो चुका है। जो यह साबित करता है, कि तमिल राजनीति में भारी उथलपुथल का दौर चल रहा है। इसके साथ आरके नगर उपचुनाव में शशिकला के भतीजे और निर्दलीय उम्मीदवार दिनकरन की जीत ने भाजपा को संकेत दे दिया है, कि बिना सारथी के दक्षिण के दुर्ग जीतना उसके लिए भी आसान नहीं होने वाला। ऐसे में अगर डीएमके भाजपा के साथ आ जाती है, जिसके राजनीतिक कयास भी लगाए जा रहें हैं, तो भाजपा के लिए बात आने वाले समय में बन सकती है, क्योंकि जब बीते वर्ष प्रधानमंत्री मोदी चेन्नई यात्रा के दौरान अचानक डीएमके के मुख्य करुणानिधि से मिलने पहुंचे, तो राजनीतिक गलियारों में उसकी चर्चा भी हो रहीं थी। वैसे इतिहास के पन्नों की खोजबीन करें, तो 1999 से 2004 के बीच वाजयपेयी कार्यकाल में डीएमके ने भाजपा को समर्थन किया था। इसके इतर 2016 के विधानसभा चुनाव में डीएमके गठबंधन को 98 सीटें मिली थी, इस लिहाज से डीएमके भी अपना रास्ता भविष्य में बनाना चाहेंगी। जिसके लिए वर्तमान में भाजपा से गठबंधन करना उसके लिए भी फायदेमंद हो सकता है। फ़िर ऐसे में फ़िल्मी दुनिया के समीप गोते लगाते तमिल राजनीति में कमल हासन और रजनीकांत की क्या भूमिका होगी, यह तो भविष्य बताएगा। आज अगर तमिल सियासत में पुराना किस्सा दोहराया जा रहा है, तो देखना होगा कि कमल हासन और रजनीकांत इस किस्से को किस स्तर तक हकीकत में तब्दील कर पाते हैं। साथ में देखने लायक बात यह भी होगी कि कमल औऱ रजनीकांत, एमजीआर और करुणानिधि जैसे सफ़ल नेता बनते हैं, या शिवाजी गणेशन की तरह राजनीति से धूमिल हो जाते हैं? इससे भी बडी दिलचस्प बात यह होने वाली है, आने वाले वक्त में कि जातीय समीकरण में उलझी तमिल की सियासत गैर-जातीय राजनीतिक समीकरण को किस हद तक हजम कर सकती है। तो इन घटनाकर्मो के लिए इंतजार तो करना ही पड़ेगा।