सामाजिक

लेख– भ्रष्टाचार एक सामाजिक बुराई, समाज की आगे आना होगा इससे निपटने के लिए

देश के भीतर भ्रष्टाचार का जिन्न अपनी जड़े काफ़ी मजबूत कर चुका है, तभी तो बर्थ सर्टिफिकेट बनवाने से शुरू होने वाला घूसखोरी का जिन्न मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाने तक चलता रहता है। पूरी दुनिया भ्रष्टाचार विरोधी दिवस प्रतिवर्ष मनाता है। फ़िर भी हमारे देश में भ्रष्टाचार का जिन्न कमजोर नहीं पड़ रहा, तो ऐसे में मूलभूत सवालों की लंबी फेहरिस्त तैयार हो जाती है। जिसमें पहला यक्ष प्रश्न यहीं जब संवैधानिक देश के नेतागण अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के निर्वाहन की लंबी-चौड़ी कसमें खाते हैं, फ़िर देश में भ्रष्टाचार और भ्रष्ट आचरण पर रोक अब तक क्यों नहीं लग पाया? इसके साथ वैश्विक स्तर पर शपथ और भारत के पैमाने पर बड़े-बड़े भाषणों, संविधान की मूल आत्मा में प्रदत्त शर्त के बावजूद भ्रष्टाचार की यह बुराई जड़ से ख़त्म क्यों नहीं होती? शायद देश में आज़ादी के बाद से अभी तक हुए भ्रष्टाचार के पैसों को देश की भलाई में लगा दिया जाता, तो विश्व की सर्वशक्तिमान शक्ति के रूप में देश सुशोभित हो जाता। पर देश औऱ अवाम की फ़िक्र किसे है, जिसको अवसर मिला, सिर्फ़ आकंठ भ्रष्टाचार में संलिप्त होना चाहते हैं। फ़िर रहनुमाई व्यवस्था के सफ़ेदपोश हो, या अन्य कोई। आज के वक़्त में देश के भीतर हुए भ्रष्टाचार की फेहरिस्त इतनी लंबी है, कि अगर सभी का ज़िक्र किया जाए, तो काफ़ी वक्त जाया चला जाए।

ऐसे में लगता है, कि नैतिकी और विचारधारा की बात करने वाले पोंगीपंथी राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र ही खोखला नहीं, बल्कि उन्हें अपनी झोली की फ़िक्र मात्र रहती है, तभी तो घोटालों पर घोटाला देश में होता रहता है, और जनतंत्र उससे जाखिमी होता रहता है, लेकिन लोकतंत्र के संवाहक निरीह बने रहते हैं। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाए, या भूखे पेट सोने वाली अवाम की भावनाओं से खिलवाड़, कि देश में अरबों-खरबों रुपए का खेल हो जाता है, और हमारी व्यवस्था किसी जिम्मेदार व्यक्ति को कठोर सजा तक नहीं दे पाती। जिससे की दूसरे लोगों को भ्रष्टाचार करने से पहले दो-चार बार उक्त सज़ा के बारे में सोचना पड़े। 2006 से प्रतिवर्ष भ्रष्टाचार विरोध दिवस मनाया जा रहा है, लेकिन प्रतिफल वहीं ढाक के तीन पात। आज के दौर में भ्रष्टाचार और घूसखोरी का हाथ काफ़ी लम्बा हो चुका है। छोटे स्तर तक इसने अपने पांव पसार दिए हैं। स्कूलों में परिवेश से लेकर मृत्यु प्रमाण पत्र तक बनवाने के लिए पहले सुविधा शुल्क जमा करना पड़ता है, जैसे किसी मंदिर में चढ़ावा चढ़ा रहे हो। आज के दौर में देश की आवाम भी इस चढ़ावे रूपी व्यवस्था से समझौता कर चुकी है, जिससे सुविधा शुल्क लेने वालों की हिम्मत ओर बढ़ गई है। फ़िर ऐसे में निषेध और विरोध दिवस सिर्फ़ ढकोसलेबाजी लगती है। दूसरे दिन फ़िर सभी नैतिकता छिन्न- भिन्न हो जाती है, औऱ भ्रष्टाचार रूपी जिन्न पैर फैलाना शुरू कर देता है।

31 अक्तूबर, 2003 को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन हुआ था। जिस सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में विश्व के प्रत्येक कोने में सामाजिक और संस्थानिक शुचिता के लिए भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी दिवस मनाने की घोषणा थी। इसके उपरांत पहली बार 9 दिसंबर, 2006 को भ्रष्टाचार विरोध दिवस मनाया गया। अब ऐसे में यक्ष प्रश्न यहीं, इस दिवस का हमारे देश पर आज़तक क्या सकारात्मक असर हुआ। क्या इस दिवस की मूलभावना और परिकल्पना के आसपास भी देश आ पाया। उत्तर न में ही है, क्योंकि आज हर दिन भ्रष्टाचार में संलिप्त लोग बिल से बाहर आ रहें हैं। ऐसे में लगता यहीं है, हमारे देश में सांगठनिक रूप से भ्रष्टाचार की जड़ें तो मजबूत हो ही चुकी है, निचले स्तर पर भी भ्रष्टाचार की पौध कमज़ोर नहीं। वह भी खाद-पानी के बल कुपोषण के प्रभाव से मुक्त हैं, भले ही देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था देश के गरीब और निचले तबकों के बच्चों को कुपोषण से न उभार पाई हो। इसके इतर देश में संगठन के स्तर पर भ्रष्टाचार का मक्कड़जाल कितना विकट रूप ले चुका है, उसका सबसे बड़ा सुबूत यही है कि हमारे देश का 5,000 करोड़ से ज्यादा धन स्विस बैंकों में जमा है, और एक आंकड़े के मुताबिक हम देशवासी लोग हर वर्ष लगभग सवा हजार करोड़ से ज्यादा राशि घूस में देते हैं।

ऐसे में इस भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार हमारा अपना समाज भी है। जो अपनी सुविधा के लिए घुस देने में नहीं हिचकते। नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनामिक की रिसर्च के मुताबिक देश का औसत हर शहरी परिवार प्रतिवर्ष 4,400 रुपये और औसत ग्रामीण परिवार प्रतिवर्ष 2,900 रुपये घूस में खर्च करता है। फ़िर हम पहले देश की व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रणाली पर सवाल खड़ा करने से पहले अपने-आप से यह प्रश्न क्यों नही करते, कि भ्रष्टाचार को आख़िर बढ़ावा कौन दे रहा? हमारा समाज समय की बचत और असुविधाओं से बचने के लिए क्यों अपने ईमान से समझौता कर बैठती है? कहते हैं, सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं, फ़िर जब निचले स्तर पर पुलिसकर्मी आदि द्वारा प्रताड़ित होने की खबर सुनकर हम उन्हें घूस देने को तैयार क्यों हो जाते हैं। उनके खिलाफ आवाज़ बुलंद क्यों नहीं करते? नेशनल कौंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक सर्वे के मुताबिक यह राशि हमारा समाज सामान्यता अधिकांश रूप से सामान्य कामकाज के अलावा शिक्षा क्षेत्र और पुलिस की जेब में डालता है। इसके अर्थ बहुत साफ़ हैं, कि लोग पुलिस की धमकी और स्कूलों, महाविद्यालयों में परिवेश आदि के लिए इस तरीके का भ्रष्टाचार पनपने देते हैं। हमारे बीच से निकले घूसखोरी और काला धन के ये आंकड़े यह स्पष्ट बयां करते हैं, कि देश के भीतर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों का क्या हश्र हुआ?

ऐसे में भ्रष्टाचार मुक्त दिवस कहीं न कहीं अन्ना आंदोलन की याद दिलाता है, जब पूरा देश एकसाथ मुखर हुआ था, भ्रष्टाचार और घूसखोरी के मुद्दे पर। उस समय भविष्य की उजली छांव भी दिखने लगी थी, भ्रष्टाचार मुक्त भारत की। उसी आंदोलन से एक पार्टी का भी उदय हुआ, जिसने यह उम्मीद जगाई, कि अब देश की राजनीतिक व्यवस्था का कायापलट होगा, और भ्रष्टाचार की शरणगाह बनती राजनीतिक धारा में नए सवेरे के साथ देश को भ्रष्टाचार मुक्त भारत की किरण दिखाई देगी, लेकिन राजनीतिक रूप से आम आदमी पार्टी पर भी भ्रष्टाचार का आरोप जब अब लग चुका है। तो यहीं कहा जा सकता है, कि राजनीति के भ्रष्टाचारियो ने सारी उम्मीदें अब हड़प ली है। और भ्रष्टाचार मुक्त भारत की कल्पना मात्र सपनों में देखा जा सकता है, क्योंकि उस आंदोलन की पहल पर निकले जन लोकपाल बिल आदि का देश में क्या हश्र हुआ, इससे सभी परिचित हैं। बताने और समझाने की कोई गुंजाइश नहीं।

यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो क्या है, कि जिस पनामा पेपर में हमारे देश के सैकड़ों लोगों के नाम हैं, उन पर देश की राजनीतिक व्यवस्था ची करने को भी तैयार नहीं, उसे तो मात्र चुनावी रण की हर समय फ़िक्र रहती है। वहीं पड़ोसी मुल्क अपने देश के पनामा पेपर में फंसे लोगों पर कार्रवाई कर रहा है। उसके साथ लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी यह भी है, कि यहां बदजुबानी तो चुनाव का हिस्सा बन जाती है, लेकिन हमारे देश में भ्रष्टाचार कभी वास्तविक रूप से चुनावी मुद्दा नहीं बन सका। इसके अलावा देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों के साथ समाज और व्यवस्था ने क्या सलूक किया, यह बिहार में सड़क माफिया से टकराने वाले सत्येन्द्र दुबे और यूपी में पेट्रोल माफिया से टकराने वाले मंजूनाथ की हत्या से बख़ूबी समझा जा सकता है। ये दो नाम तो मात्र उदाहरण हैं, ऐसे अनगिनत लोग हैं, जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने के कारण अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। ऐसे में लगता यहीं है, कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक बुराई बन चुकी है, जिसकी जड़ें राजनीति के खाद-पानी से पुष्पित और पल्लवित होकर वट वृक्ष का रूप ले चुकी हैं। जो केवल संस्थागत प्रयास, कानून और भय से ध्वस्त नहीं की जा सकता। इसके लिए जनान्दोलन की मुखर संवेदना को पुनः जागना होगा। साथ ही साथ समाज को अपनी आवश्यकताओं के लिए निचले स्तर पर घूस देने की फितरत से दूर रहना पड़ेगा, तभी कुछ सकारात्मक असर दिख सकता है, क्योंकि आज के दौर में रहनुमाई व्यवस्था से आश करना, व्यर्थ का समय गंवाना मात्र है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896