एक दीप
एक दीप मैं, घोर अमा के तम का नाश करूँ ।
आगे पीछे घोर अंधेरा ।
उस पर झंझावत का घेरा ।
आया झुंड पतंगो का भी ,
जीवन हर लेने को मेरा ।
कोई नही दूर तक साथी ,जिसकी आश करूँ ।
एक दीप मैं……………………..
जलता रहा मेरा गीला तन ।
हो बसंत या पतझर, सावन।
तिमिर मारता रहा अकेला ,
लेकिन कहता रहा मेरा मन ।
टिमटिम करते खद्योतों का ,क्यों विश्वास करूँ ?
एक दीप मैं…………………..
कभी न तुझसे घबराऊँगा ।
घोर तिमिर तुझको खाऊँगा।
सांध्य-सूर्य निज गृह जाएगा,
नव ऊर्जा ले फिर आऊँगा।
यही चाह ,अंधियारे पथ पे ,नया प्रकाश करूँ ।
एक दीप मैं………………..
——————————© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी