ग़ज़ल
मैं जागता रहा मगर उसको खबर न थी
पलकों पे उसकी ख्वाब थे मुझ पे नजर न थी
आकर किसी ने मुझको अचानक बचा लिया
वरना ये जान जाने में कोई कसर न थी
पाने की उसको चाह थी पर जिद न कर सका
बच्चे सा मन जरूर था उस पर उमर न थी
कोहरे ने आफताब की पहचान छीन ली
पहले तो इस तरह कभी शामो-सहर न थी
छूकर जिसे न ‘शान्त’ हुए हों दिलो-दिमाग
गंगा में आज तक उठी ऐसी लहर न थी
— देवकी नन्दन ‘शान्त’