लेख- लोकतंत्र के लिए शुभ नही नकारात्मक राजनीतिक माहौल
पूर्वोत्तर में भगवे का सियासी रंग ऐसा चढ़ा, कि 25 वर्ष तक सत्ता में रही वामदल सत्ताच्युत हो गई। यह भाजपा के विस्तार के लिए शुभ घड़ी है। राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय इस ऐतिहासिक जीत के बाद यह भी है। कहीं यह हार कांग्रेसमुक्त भारत के साथ वाममुक्त भारत की तरफ़ देश तो नहीं निकल पड़ा है। त्रिपुरा में भगवा गुलाल जिस तरीके से छाया, उसे देखकर राजनीतिक विश्लेषक भी हैरान हैं, कि जिस राज्य में पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने 50 उम्मीदवार ख़ड़े किए थे, उनमें से 49 की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। ऐसे में समझ यहीं पड़ता है, कि सिर्फ़ नेतृत्व के साफ़-सुथरा होने की मियाद पर लगातार चुनाव नहीं जीता जा सकता। चुनाव में जीत के लिए मूलभूत सुविधाओं पर सरकार का जोर औऱ चुनाव के वक़्त मजबूत चुनावी रणनीति होनी चाहिए। त्रिपुरा में भाजपा की जीत ने यह साबित किया है, कि मौजूदा दौर में अगर कोई राजनीतिक दल चुनावी प्रबंधन में सबसे सबल है, तो वह भाजपा ही है, उसकी काट किसी के पास नहीं दिख रहीं। जिस कारण विपक्षी राजनीति देश में अपना वजूद खोती जा रहीं है, जो एक मजबूत लोकतांत्रिक देश के लिए चिंता की बात है।
त्रिपुरा की बदहाल चिकित्सा व्यवस्था, जर्जर सड़क व्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी जहां वाम दल को सत्ता से उखाड़ फेंकने का कारक बनी। वहीं सातवां वेतनमान न लागू होना आग में घी का काम वाम दल के लिए किया। यह बात हुई भाजपा के बढ़ते राजनीतिक जनाधार औऱ उसके अस्तित्व की, लेकिन अगर सत्ता के आगे राजनीतिक राजधर्म औऱ उसके कार्य बौने पड़ने लग जाएं, तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है। यह ठीक है, भाजपा एकछत्र सम्पूर्ण भारत पर राज्य करना चाहती है, लेकिन विरोधी विचारों को अगर भाजपा भी नीचा दिखाने लग जाएगी, फ़िर उसमें औऱ दूसरों में फ़र्क़ क्या रह जाएगा? यह समकालीन राजनीति का विद्रूप चेहरा है, कि सत्त्तासीन होते ही राजनीतिक दल अपने विरोधी दल की पहचान औऱ नीतियों को ख़ाक करने का विचार पाल लेते हैं, जो किसी भी साँचे में रखकर सटीक नही ठहराया जा सकता। ऐसी विचारधारा का दामन स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शर्तिया जरूरी है, लेकिन उस हिसाब से नहीं जैसा दावा रेलगाड़ियों पर सौ प्रतिशत रोग से ईलाज आदि का किया जाता है।
हालिया घटना का ही ज़िक्र करें, तो अभी त्रिपुरा में भाजपा पूर्ण रुप से सत्त्तासीन भी नहीं हुई, कि वाम राजनीति के नायक लेनिन की मूर्तियों को जमींदोज़ करना, और कई सीपीएम कार्यालयों को निशाना बनाया गया। जीत की ख़ुशी मनाना उचित है, लेकिन बेलगाम हो जाना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। जो भाजपा केरल में होने वाली राजनीतिक हिंसा को लेकर मुखर होती रही है, अगर त्रिपुरा में उसकी राजनीतिक पारी शुरू होने के पहले यह विरोधी राजनीति देखने को मिल रही है। फ़िर यक्ष प्रश्न यहीं जब सत्ता बदल जाने के बाद भी हिंसा नहीं रुकती, तो बदलाव के क्या अर्थ? लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा का न कोई वजूद था, औऱ न होना चाहिए, यह सियासतदां क्यों भूल जाते हैं, सवाल तो यहीं ज़ेहन में कौंधता है। एक तरफ़ प्रधानमंत्री मोदी अगर कहते हैं, कि पार्टी जितनी बडी होती जाएं, कार्यकर्ताओं को उतना ही विन्रम औऱ सज़ग होना चाहिए, फ़िर त्रिपुरा में हुई बीते दिनों की घटना के क्या निष्कर्ष निकाले जाएं, शायद प्रधानमंत्री मोदी की बात को उनके ही कार्यकर्ता धत्ता बताने पर तुले हुए हैं। यहीं कहना मुनासिब समझ आता है। अगर त्रिपुरा में जीत का रंग इतना चोखा हो गया है, कि कार्यकर्ता तोड़फोड़ पर उतर आएं, तो यह कतई सही नहीं। वाम दलों पर भी विरोधी विचारधारा के कार्यकर्ताओं की हत्या आदि करने का आरोप लगते रहें हैं, कहीं त्रिपुरा की हिंसा भाजपा को भी उसी श्रेणी में तो नहीं आगे चलकर ढ़केल देगी। अगर ऐसा है, तो यह कतई सही नहीं हो सकता, हार औऱ जीत सिक्के के दो पहलू है, इसे नवनिर्वाचित पार्टी को भूलना नहीं चाहिए।
भाजपा अगर त्रिपुरा की जीत को अपनी विचारधारा की जीत बता रहीं है, तो उसे यह भी समझना होगा कि अगर त्रिपुरा की आवाम ने 25 वर्ष बाद वाम किला ढहा दिया है, तो उसके पीछे बड़ा कारण रहा होगा। इसलिए भाजपा को उन वादों को पूरा करने की फ़िक्र होनी चाहिए, जो उसने त्रिपुरा की अवाम से चुनाव के वक़्त किए थे, न कि विरोधी विचार के सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतीकों को नेस्तनाबूद करने की। हमारे देश में सहअस्तित्व की परम्परा सदियों से रही है, उसे वर्तमान दौर में राजनीतिक दल क्यों बिसार रहें हैं। फ़िर चाहें बात तमिलनाडु में पेरियार औऱ पश्चिम बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाओं के साथ बेअदबी से पेश आना हो। लेकिन इस लेख में विस्तार से बात त्रिपुरा में घटी घटना पर, क्योंकि भाजपा भी बात सबके साथ की करती है, औऱ अभी हाल में सत्ता के लिए चुनी गई है। तो अगर भाजपा दूसरे दलों के विचारों पर चलने को तैयार दिखती है, तो यह किसी मायने में न उसके भविष्य के लिए सही है, न स्वस्थ लोकतंत्र के लिए। अगर भाजपा की राजनीतिक पारी की त्रिपुरा में बात की जाएं, तो अभी चलो पलटाई नारे के साथ सवेरा ही हुआ है, अभी उसको साँझ ढलने तक कार्य करके अन्य वाम क़िले को भी ढहाना है, तो त्रिपुरा राज्य की तस्वीर औऱ तक़दीर बदलनी होगी, औऱ यह सब बिना सहयोग औऱ सहकारिता के संभव नहीं। इसके साथ रहनुमाई व्यवस्था का पहला राजनीतिक धर्म औऱ कर्म दोनों हिंसा औऱ उत्पात को नियंत्रित करना होता है। यह पाठ हमारे रहनुमा कंठस्थ क्यों नहीं कर पाते। सुसाशन की पहली सीढ़ी सभी विचारधारा का सम्मान करना औऱ बदला लेने की सोच न रखना होता है, तो कहीं भाजपा भी इस बात को जीत की ख़ुशी में भूल तो नहीं रहीं। राजनीति के विरोधी सिर्फ़ विचार के विरोधी होते हैं, शत्रु नहीं, यह सभी दलों को समझना होगा। तभी त्रिपुरा जैसी घटना देश में बंद होगी, औऱ लोकतंत्र ओर मजबूत होगा।