गीतिका
जिनके खातिर ये मेरा दम निकले ।
हाय ! वो कितने बेरहम निकले ।
भूख की आग ने जो बहकाया ,
गलत राहों पे ये कदम निकले ।
तुमको औरों से भला समझा था,
तुम तो उनसे भी बहुत कम निकले !
शर्म आती है सियासत वालों !
हाय! तुम कितने बेशरम निकले ?
आम इंसान के हिस्से मे क्यूँ ,
सिर्फ मजबूरी और गम निकले ?
तोड़कर उसने यकीं, ठीक किया,
कम से कम मेरा ये भरम निकले ।
© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी