मैं ईश्वर को जानता हूं
ओ३म्
ईश्वर है अथवा नहीं? ईश्वर की सत्ता अवश्य है। क्या आप उसे जानते हैं? हां, मैं ईश्वर को जानता हूं। ईश्वर कैसा है? ईश्वर संसार में सबसे महान है। वह अन्धकार से पूरी तरह मुक्त है अर्थात् वह अन्धकार से सर्वथा दूर है। वह आदित्य वर्ण अर्थात् सूर्य के समान प्रकाशमान ज्योतिस्वरूप, ज्ञानस्वरूप व आनन्स्वरूप आदि असंख्य गुणों वाला है। मनुष्य तब तक मृत्यु से पार नहीं जा सकता जब तक की वह ईश्वर को जान न ले और प्राप्त न कर ले। मृत्यु से पार जाने का अर्थ है कि मृत्यु पर विजय प्राप्त करना। मृत्यु पर विजय तब होती है जब मनुष्य मृत्यु से घबराये न और मुस्कराकर उसका स्वागत करे। ऐसा कब होता है जब कि मनुष्य ईश्वर, आत्मा और जन्म व मृत्यु के चक्र के यथार्थ रहस्य को जान लेता है। इन्हें जान लेने पर मनुष्य मृत्यु के पार चला जाता है। मृत्यु के पार क्या है? इसका उत्तर है कि मृत्यु के पार मोक्ष है। यह मोक्ष ऐसा है कि इसमें दुःख का लेश मात्र भी नहीं है। मोक्षावस्था में मनुष्य का आत्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करता है। उसकी सभी इच्छायें व अभिलाषायें पूर्ण हो जाती हैं। वह जन्म व मरण के दुःखरूपी चक्र से मुक्त हो जाता है। मोक्ष की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष होती है। इसके बाद मनुष्य पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेता है और वेदाध्ययन सहित श्रेष्ठ कर्मों को करके पुनः जीवनोन्नति कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है व करता है।
हमने जो उपर्युक्त विचार लिखे हैं वह हमारे नहीं अपितु ईश्वर द्वारा यजुर्वेद के 31 वें अध्याय के मन्त्र संख्या 18 में मनुष्यों को उपदेश करते हुए बताये गये हैं। वेद स्वतः प्रमाण होने से यह वेद वचन भी पूर्ण प्रामाणिक एवं मान्य है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वज्ञ होने से निर्भ्रान्त है। वेद के सभी वचन इसी कारण प्रमाण माने जाते हैं कि वह सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञ ईश्वर के कहे गये वचन हैं। तर्क व युक्ति से भी वेद में कही गई बातों की पुष्टि की जा सकती है। आईये, अब वेदमन्त्र पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं। वेदमन्त्र हैः
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।
इस मंत्र का ऋषि दयानन्द जी द्वारा किया गया पदार्थ एवं भावार्थ हम प्रस्तुत करते हैं। पदार्थ में वह लिखते हैं, ‘‘हे जिज्ञासु पुरुष! (अहम्) मैं जिस (एतम्) इस (महान्तम्) बड़े-2 गुणों से युक्त (आदित्यवर्णम्) सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप (तमसः) अन्धकार वा अज्ञान से (परस्तात्) पृथक् वर्तमान (पुरुषम्) स्वस्वरुप से सर्वत्र पूर्ण परमात्मा को (वेद) जानता हूं (तम्, एव) उसी को (विदित्वा) जान के आप (मृत्युम्) दुःखदायी मरण को (अति, एति) उल्लंघन कर जाते हैं किन्तु (अन्यः) इस से भिन्न (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) अभीष्ट स्थान मोक्ष के लिए (न, विद्यते) नहीं विद्यमान है।
उपर्युक्त मंत्र का ऋषि कृत भावार्थ है ‘यदि मनुष्य इस लोक परलोक के सुखों की इच्छा करें तो सब से अति बड़े स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश से पृथक् वर्तमान परमात्मा को जान के ही मरणादि अथाह दुःखसागर से पृथक् हो सकते हैं। यही सुखदायी मार्ग है। इससे भिन्न कोई भी मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग नहीं है।’
उपर्युक्त मन्त्र के बाद के मंत्र में भी ईश्वर कैसा है, इसका उपदेश ईश्वर ने किया है। मन्त्र में बताया गया है कि ‘जो यह सर्वरक्षक ईश्वर आप उत्पन्न न होता हुआ (अर्थात् जन्म न लेता हुआ) अपने सामर्थ्य से जगत् को उत्पन्न कर और उसमें प्रविष्ट होके सर्वत्र विचरता है, जिस अनेक प्रकार से प्रसिद्ध ईश्वर को विद्वान् लोग ही जानते हैं, उस जगत् के आधाररूप सर्वव्यापक परमात्मा को जान कर मनुष्यों को आनन्द को भोगना चाहिये।’
वेद के इन मंत्रों में ईश्वर के स्वरूप सहित ईश्वर को जानने से होने वाले लाभों को भी बताया गया है। ईश्वर को जानने से मनुष्य मृत्यु के पार होकर मोक्ष अर्थात् अक्षय आनन्द को प्राप्त करता है। यह मोक्ष का आनन्द जीवात्माओं वा मनुष्यों को बिना ईश्वर को जाने, बिना ईश्वर की उपासना किये व साथ ही वेदोक्त कर्म किये बिना प्राप्त नहीं होता। हम यह भी अनुमान करते हैं कि जो लोग वेदों का अध्ययन नहीं करते, वेदानुसार ईश्वरोपासना, देवयज्ञ व इतर महायज्ञों को नहीं करते और जिनके गुण, कर्म व स्वभाव वेदाज्ञा के अनुरूप न होकर विपरीत हैं, वह न तो ईश्वर को यथार्थरूप में जान सकते हैं और न ही मोक्षानन्द को प्राप्त कर सकते हैं।
मनुष्य जीवन पर विचार करते है ंतो हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य शरीर में परमात्मा ने हमें पांच ज्ञान व पांच कर्मेन्द्रियां दी हैं। ज्ञानेन्द्रियों से ईश्वर व सांसारिक ज्ञान प्राप्त कर कर्मेन्द्रियों के द्वारा हमें वेद विहित कर्मों को करना है। इससे हम ईश्वर सहित आत्मा और संसार का ज्ञान भी प्राप्त कर लेंगे और मृत्यु के पार भी जा सकते हैं तथा आनन्द का भोग भी दीर्घ काल तक कर सकते हैं। मनुष्य जीवन हमें मिला ही इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए है। ईश्वर व जीवात्मा दोनों चेतन पदार्थ हैं। ईश्वर आनन्दस्वरूप है और जीवात्मा आनन्द से रहित है। मनुष्य का जीवात्मा अविद्या व अज्ञान की अवस्था में भौतिक पदार्थों में सुख व आनन्द की खोज करते हुए उनके भोग को ही जीवन का लक्ष्य समझ लेता है। वेद पढ़ने पर ज्ञात होता है कि ईश्वरोपासना एवं वैदिक कर्मों को करने से ही अक्षय सुख मिलता है। अतः सभी मनुष्यों को वेद की शरण को प्राप्त होकर ईश्वर को जानना चाहिये और जन्म व मरण के दुःखरूपी चक्र से छूट कर मोक्षानन्द का भोग करना चाहिये। इति ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य