सामाजिक

लेख– सरकारी परियोजनाओं में देरी, अवाम की कमाई से खिलवाड़

देश की सबसे बड़ी विडंबना है, रहनुमाई तंत्र के हिस्सेदार अपना दामन भर लेते हैं, लेकिन अवाम की मुट्ठी ख़ाली रह जाती है। अवाम अपनी जिंदगी गुजर-बसर करने के लिए प्रयासरत ही रहती है, और सियासतदां चंद वर्षों में फूलों की शैय्या के मालिक बन जाते हैं। आख़िर जब लोकतंत्र जनता के लिए जनता के द्वारा जनता का शासन है। फ़िर उसी जन से निकले लोग अपने को ख़ास क्यों समझ लेते हैं। आख़िर अवाम के हिस्सों पर फ़न फ़ैलाकर ये सियासतदां क्यों लिपट जाते हैं। इन सियासी फ़नधारियों की वज़ह से ही अवाम को जो मूलभूत सुविधाएं काफ़ी पहले मिल जानी चाहिए, वह न मिल पाना लोकतंत्र को शर्मिंदा करता है, और ग़रीब-पिछले लोगों की दुश्वारियों को बढ़ाता है। देश की स्थिति इतनी दयनीय हो गई है, कि जन सरोकार औऱ जन- सहकारिता से ज़ुड़े हर मसलें पर सरकारें काफ़ी पिछड़ी नजऱ आती है। तो यह देखकर एहसास तो यहीं होता है, कि ऐसे लोकतंत्र औऱ लोकतांत्रिक रहनुमाई प्रणाली की क्या मियाद जो अपने लोगों की जरूरतों को भी समय पर पूरा नहीं कर पाती।

वह भी उस स्थिति में की जब वह सरकार चुनी भी अवाम के माध्यम से भी जाती है, औऱ चलती भी अवाम के खून-पसीने की रक़म से ही। अगर बात संख्यिकी औऱ कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट की करें, तो अक्टूबर 2017 तक केंद्र सरकार की देरी से चल रहीं परियोजनाओं में से 312 रेलक्षेत्र से सिर्फ़ जुड़ीं हुई है। फ़िर ऐसे मोड़ पर अनगिनत सवाल ख़ड़े होते हैं, लेकिन अपने राजनीतिक विस्तार में मशगूल औऱ हितोउद्देश्य की आज के समय की राजनीति बनिस्बत एक सवालों का उत्तर देने को भी तैयार नहीं दिखती। क्यों योजनाएं समय पर पूर्ण नहीं होती, क्या कारण होता है जिससे अवाम से जुड़ी योजनाएं अधर में ही अटककर रह जाती हैं? वैसे यह किसी एक सरकार के कार्यकाल की बात भी नहीं है। पूर्ववर्ती सरकारों का हाल भी यहीं रहा है। तभी तो समाज का कुछ हिस्सा अभी भी धुंधलेपन में जीवन जीने को विवश औऱ लाचार पाता है। आज के दौर में जनसरोकार से जुड़ीं किसी भी योजना को खंगाला जाएं, तो समय के साथ अपने लक्ष्य की तरफ़ बढ़ती मुश्किल से एक भी नहीं मिलेंगी। हम बात रेलवे की योजनाओं को समय से न पूर्ण होने को ही आज उदाहरण के तौर पर लेकर आगे बढ़ रहें हैं।

अगर सांख्यिकी औऱ कार्यक्रम मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है, कि 36 रेलवे परियोजनाओं में 12 से लेकर 261 माह का विलंब हो चुका है, तो यह आज की सरकार के साथ पिछली सरकारों की पोल-पट्टी भी खोलती है, कि सरकार में रहने वाले सियासतदार जो अपने हक के लिए लड़ने के साथ ग़बन भी करते हैं, वे जनता के प्रति कितने वफ़ादार हैं। बशर्तें ये तो मात्र एक योजना का ज़िक्र है, जिसे ट्रेलर के रूप में ले सकते हैं, ऊपर से लेकर नीचे तक की सभी योजनाओं का ज़िक्र किया गया। तो पूरी फ़िल्म तैयार हो सकती है, रहनुमाई तंत्र की उस गण के प्रति उदासीनता औऱ नकारापन की। जिसके बल पर वह लोकतंत्र में तंत्र का हिस्सा बनकर अवाम के लिए कार्य करने का रास रचती है। जनता की गाढ़ी कमाई पर चलने वाला तंत्र अगर अवाम के पैसों को व्यर्थ गंवा रहा, तो यह लोकतंत्र के साथ जनता के तक़दीर के साथ सरासर बेईमानी ही कही जा सकती है। यह सोचने की फ़ुर्सत क्यों नहीं सदन में तू-तू, मैं-मैं करने वाली राजनीतिक परिपाटी निकाल पाती, या फ़िर सबकुछ समझकर भी न समझने का ढोंग रचती है।

वर्तमान दौर की सरकार जो सबका साथ-सबका विकास करने की बात करती है, अगर वह दम्भ भरती है, पूर्ववर्ती सरकारों की तरह की सड़क, बिजली, पानी औऱ स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफ़ी व्यापक स्तर पर सुधार किया जा चुका, फ़िर जब लक्ष्य हासिल हो ही रहा होता है। तो पिछली या बिलंब से चलने वाली परियोजनाओं की रक़म औऱ समय बढ़ाने का क्या अर्थ निकाला जाए? हां यह कुछ हद तक सही है, वर्तमान सरकार जनमहत्व के विषय पर कुछ कार्यरत दिख रही है, लेकिन अभी काफ़ी लम्बा सफ़र तय करने से इंकार करना अवाम के आंखों में धूल झोंकने से कम नहीं। यह बात सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट भी कहती प्रतीत होती है, क्योंकि सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है, कि वर्तमान दौर की जनमहत्व औऱ सामाजिक सरोकार से जुड़ीं बुनियादी ढांचे की लगभग साढ़े तीन सौ योजनाएं देरी की वज़ह से परिणाम देने से पूर्व ही मुरझा रहीं हैं। अब जब बुनियादी ढांचे के विकास की योजनाओं को भी समय पर सरकारें पूर्ण नहीं करा पा रहीं। फ़िर कैसे मान लिया जाए, कि वे जनमहत्व के प्रति सज़ग औऱ दृढ़ इच्छाशक्ति से लबरेज़ हैं। यह दिखाता है, कि आज की राजनीति सिर्फ़ अवाम को गुमराह कर अपना हित साधने की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही है। वर्तमान दौर में सांख्यिकी मंत्रालय ही कहता है, कि रेलवे की परियोजनाएं समय पर न पूरी होने के कारण उनकी लागत 1.73 लाख करोड़ रुपए बढ़ा दी गई है। तो ऐसे में सवाल तो यही आख़िर ऐसी नौबत ही क्यों आ जाती है, कि योजनाओं का समय औऱ लागत बढ़ानी पड़ती है? इसकी जड़ को तलाश कर उसका निवारण सरकारी तंत्र को करना चाहिए। अगर वह सचमुच में जनता के प्रति कर्तव्यपरायण औऱ अवाम के बारे में तनिक भी फ़िक्र रखती है, तो।

अगर बात छोटे स्तर से की जाएं, तो पता चलेगा की अपने आसपास जो निर्माण कार्य आदि शुरू हुआ था। उसकी समयसीमा भी निकल गई साथ में रक़म भी, लेकिन कार्य उस सरकारी निर्माण योजना का पचास फ़ीसद भी नहीं हुआ। ऐसा क्यों होता है। इसका साफ़ कारण यहीं लगता है, कि सरकारी तंत्र का ढिलमुल भरा रवैया औऱ लालफीताशाही के साथ परियोजना के ठेकेदार की सेटिंग देरी औऱ परियोजना के पैसों के उड़न-छू होने का अहम कारक होता है। अगर सीधे तौर पर देखा जाए, तो किसी भी बुनियादी क्षेत्र में झोल अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। तो क्यों नहीं सरकारी तंत्र किसी परियोजना को अमलीजामा पहनाने से पूर्व ऐसी नीति बनाती, जिससे योजनाएं समय से धरातल पर दिख सकें। लोकतंत्र में अगर जनता का हक है, कि उसे जीवनयापन का बेहतर अवसर रहनुमाई व्यवस्था उपलब्ध कराएं, तो उससे कतराती हमारी व्यवस्था क्यों दिखती है। किसी परियोजना के समय पर पूर्ण न होने पर लोकतांत्रिक अवाम को दोहरा नुकसान झेलना पड़ता है। पहला तो उसे असुविधाओं से दो-चार होना पड़ता है, साथ में अगर योजनाएं निर्धारित समय से ज्यादा वक्त लेती है। तो अंततः उसकी कीमत जनता की जेब से ही सियासतदां वसूलते हैं। इन बातों को ज़ेहन में रखते हुए हमारी सियासी प्रणाली को आपसी हित से ऊपर उठकर योजनाओं के निष्पादित होने के समय को दुरुस्त करने के साथ बेफिजूल के खर्चों पर अंकुश लगाना होगा। जिससे अवाम की संपत्ति का दुरुपयोग न हो, साथ में जिससे योजनाओं का लाभ समाज को समय से मिल सकें, औऱ देश, समाज उन्नति के शिखर की तरफ़ बढ़ सकें।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896