“गज़ल”
कभी आदमी पल निरखता रहा है
किराए के घर पर मचलता रहा है
उठा के रखा लाद जिसको नगर में
तराजू झुका घट पकड़ता रहा है।।
नई है नजाकत निहारे नजर को
सजाकर खिलौना सिहरता रहा है।।
मदारी चितेरा बना है वखत पर
तमाशे दिखाकर सुलगता रहा है।।
नचाता बंदरिया जमूरा बनाकर
नए छोर नखरा उठाता रहा है॥
किससे कहें हाल सबकी यही है
छुपाकर निगाहें लुढ़कता रहा है॥
तको आज गौतम अपनी नजर से
नदी का किनारा टपकता रहा है॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी