मैं हूँ ना ….
देवी असमय ही अपने पति को खो चुकी थी । फिर भी हिम्मत न हारते हुए अपने दो छोटे बच्चों के साथ वक्त के थपेड़ों से दो दो हाथ करने के लिए भवसागर में उतर पड़ी । समाज की तीखी नजरों का बखूबी सामना करते हुए भी उसने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया और दोनों बच्चों को ऊंची तालीम हासिल कराई । दोनों बच्चे अब विदेशों में जम चुके थे । उनकी शादी भी हो चुकी थी और दोनों अपनी घर गृहस्थी में रमे हुए थे । गाहेबगाहे दोनों ही मां से अपने साथ रहने का निवेदन करते लेकिन वह विनम्रता से उन्हें मना कर देती । उसकी यादें उस घर से जुड़ी थीं जिसमें वह रहती थी और उसे किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहती थी । एक दिन बड़े बेटे ने उसे फिर कॉल किया । आज भी उसका वही निवेदन था । उससे बात करने के बाद वह मोबाइल अभी कानों से हटाने ही जा रही थी कि उसे अपने बहू की तेज गरजती हुई सी आवाज सुनाई दी । बेटे ने शायद फोन कट करना भूल गया था । बहू कह रही थी ” क्या जब देखो तब माँ जी के पीछे पड़े रहते हो । उनको यहां बुलाकर क्या करना है ? यहाँ कितने खर्चे हैं देख नहीं रहे हो ? ऊपर से उनको भी बुलाकर खर्चे बढ़ाने पर तुले हुए हो । अब मुझसे उनकी सेवा वेवा नहीं हो पाएगी .. हां ! ” उसकी खुशामद करते हुए बेटे की आवाज सुनकर वह भौंचक्की रह गयी ” अरी भगवान ! तुम क्या मुझे बेवकूफ समझती हो ? जानती हो यहाँ नौकर कितने महंगे हैं ? आएगी तो घर का काम भी करने में तुम्हें आसानी हो जाएगी और हमारे नौकरानी के पैसे भी बच जाएंगे । बदले में उसे क्या देना है दो वक्त की रोटी ही तो …” कहने के बाद उसकी कुटिलता भरी हंसी बड़ी देर तक देवी के कानों में गूंजती रही । दिमाग में चल रहे अंधड़ के बीच उसने एक फैसला लिया और दृढ़ निश्चय करके उसपर अमल भी शुरू कर दिया ।
सुबह बगीचे में टहलते हुए अक्सर उसकी मुलाकात नजदीक की ही कालोनी में रहने वाले शर्मा जी से हुई । औपचारिक बातों से शुरू बात का सिलसिला एक दूसरे के सुख दुःख व हालचाल तक जा पहुंचा। शर्मा जी की कहानी सुनकर देवी को अपनी योजना और भी उचित जान पड़ी ।
शर्माजी के भी दो बेटे थे जो नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहरों में रहते थे । कुछ साल पहले ही उनकी पत्नी भी भगवान को प्यारी हो गयी थीं । एकाकी जीवन जीते हुए शर्माजी बेटों से तालमेल रखने की हरसंभव कोशिश करते लेकिन बेटे शहर में अपने परिवार में ही खुश थे । शहर में बड़ा घर लेने की अपनी जरूरत को बताकर बड़े बेटे ने उनसे अपना घर बेच देने की इच्छा जताई थी जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया । अब बाप बेटों में मनमुटाव का पैदा हो जाना अवश्यम्भावी था । कड़वाहट इतनी बढ़ी कि शर्माजी ने वसीयत बनवा दी और अपने मरणोपरांत अपनी सारी जायदाद किसी संस्था के नाम लिखवा दी ।
अब देवी ने अपनी सोच के अनुसार अपने ही बड़े से घर में वृध्दाश्रम खोलने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने की शुरुआत कर दी । कानूनी औपचारिकता पूरी करने के बाद देवी बेसहारा वृद्धों की सेवा व तीमारदारी में लग गयी । अब उसका नियमित बगीचे में जाना कम होने लगा । बहुत दिनों बाद अचानक शर्माजी से देवी की मुलाकात हो गयी । देवी ने उन्हें अब कम आ पाने की वजह बताते हुए कहा ” आप आखिर घर में अकेले ही रहते हैं । क्यों न आकर हमारे साथ ही रहें ? “
अगले दिन आने का वादा करके शर्मा जी वापस अपने घर चले गए ।
अपने वादे के मुताबिक शर्माजी अगले दिन सुबह ही देवी के घर पहुंच गए जो अब वृध्दाश्रम में तब्दील हो गया था । शर्माजी वहां गए तो वहीं के होकर रह गए । दिनभर वृध्दाश्रम के लोगों की सेवा व उनकी देखभाल में देवी का वक्त बीत रहा था । शर्मा जी हर वक्त उसके साथ रहते व उसका हाथ बंटाते । अब वृद्धों की संख्या बढ़ने लगी थी । सबके लिए प्रबंध करना अब उसके लिए मुश्किल हो रहा था । दानदाताओं की संख्या भी अब आश्चर्यजनक रूप से कम हो गयी थी । आर्थिक तंगी झेलते हुए भी देवी ने खुद को टूटने नहीं दिया और अपने घर के पास ही अपनी खाली जमीन बेचने का इरादा कर लिया । शर्मा जी से सलाह ली । शर्मा जी ने देवी की सारी बात सुनने के बाद कहा ” अगर तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूँ ? “
” कहो ! बुरा क्यों मानूँगी ? “
” तुम महिला होकर अकेले ही इतनी सारी जिम्मेदारियां उठाती हो । अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हारा हाथ बंटाने को तैयार हूं । “
” नहीं ! आप कभी कभी मेरी मदद कर देते हैं इतना ही बहुत है । इससे आगे बढ़ने पर लोग क्या कहेंगे ? हमें समाज का भी तो ध्यान रखना है ! “
” लोगों का क्या है ? लोग तो कहते ही रहेंगे । हां समाज का मुंह बंद करने का एक उपाय है मेरे पास । अगर तुम चाहो तो मैं तुमसे शादी करने के लिए तैयार हूं । “
” ये आप क्या कह रहे हैं ? “
” मैं ठीक कह रहा हूँ देवी ! बच्चे अपनी दुनिया में मस्त हैं । न कोई हमारा है न कोई तुम्हारा । तो क्या हमारी कोई जिंदगी नहीं ? हमारे कोई अरमान नहीं ? क्या शादी का मतलब सिर्फ शारीरिक सुख ही होता है ? क्या भावनाओं की कोई कीमत नहीं ? हम आज उम्र के इस पड़ाव पर कमसे कम अपनी भावनाएं तो एक दूसरे से साझा कर सकते हैं । फिर भी अगर तुम ना चाहो तो कोई बात नहीं । जैसी तुम्हारी मर्जी ! “
” अभी तो फिलहाल मैं अपने लिए नहीं इन बेसहारा बुड्ढों के लिए चिंतित हूँ जो मेरे सहारे ही यहां पड़े हुए हैं । स्टोर में दस दिन का ही राशन पड़ा हुआ है । “
” अरे तुम उसकी फिक्र छोड़ो और मेरे सवाल का जवाब दो । “
” तो उनकी फिक्र कौन करेगा ? ” कहते हुए देवी ने घूम कर शर्मा जी की तरफ देखा ।
शर्माजी के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान तैर रही थी । बड़े ही रोमांटिक अंदाज में शाहरुख खान की नकल करते हुए बोले ,” मैं हूँ ना .…..! “
और ” धत ! ” कहती हुई देवी उनके आगोश में समा गई । देवी की मौन स्वीकृति से अभिभूत शर्मा जी ने उसके माथे पर चुम्बन लेते हुए अपने प्यार की मोहर लगा दी ।
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, बदलते समय में बदलती परिस्थितियों में यही तर्कसंगत है. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय बहनजी ! वृद्धावस्था में भी एकाकी जीवन से उबरने में यदि किसी का साथ मिल जाय तो अच्छा ही है । अपने एकाकी पन का इलाज देवी ने वृध्दाश्रम की स्थापना करके किया और आर्थिक तंगी के समय शर्माजी ने उन्हें मानसिक व आर्थिक मदद देते हुए कहा ‘ मैं हूँ न ..’ अति सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद बहनजी !
बहुत बढ़िया लिखा राजकुमार भाई .बदलते समय में नज़रिए भी बदलने होंगे .अब वोह वक्त नहीं रहा किः एक घर में सभी रहते थे और इस को पुश्तैनी घर कहते थे , अब लोग मकान बेच कर दूसरा ले लेते हैं . हम कुछ भी कहें, समय को देख कर चलना जरूरी हो गिया है . यहाँ ही हमारी पड़ोसन गोरी है .उस के पति की मृतु हो गई थी .उस ने दुसरी शादी एक आयेरश से कर ली, हम भी उस की शादी में मज़े किये थे, वहां गोरीऔर आयेर्ष के भी बच्चे थे , सब मिल कर डांस कर रहे थे .उस वक्त मैं बहुत फिट था और उन के साथ बहुत डांस किया था . इस ग्लोबलाइज़ेशन के ज़माने में सब कुछ बदल रहा है .ज़ादा कोसना ठीक नहीं, मान लेना चाहिए किः पुराना ज़माना अब नहीं रहा .
आदरणीय भाईसाहब ! सही कहा आपने ! अब समय आ गया है कि समय के साथ ही अब नजरिया बदल लिया जाय । और इसमें कुछ भी बुरा नहीं है । बहुत सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद !