ईश्वर सबसे महान है, उससे महान न कोई है और न कभी होगा
ओ३म्
सबसे बड़े व गुण, कर्म, स्वभाव आदि में सबसे श्रेष्ठ को ‘‘महान्” कहते हैं। ऐसी सत्ता यदि कोई है तो वह केवल ईश्वर ही है। ऐसा कौन सा गुण है जिसकी ईश्वर में पराकाष्ठा न हो? अर्थात् ऐसा कोई गुण नहीं है जो ईश्वर में न हो। ईश्वर सर्वज्ञ है और साथ ही सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अनादि, अनन्त, अविनाशी, निर्विकार, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वाव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और समस्त संसार का कर्ता व रचयिता है। संसार का धारधकर्ता व पालनकर्ता भी वही है। इन सभी गुणों की पराकाष्ठा ईश्वर में है। यह गुण किसी जीव या मनुष्य में सम्पूर्णता सहित नहीं हो सकते। ईश्वर व मनुष्य दोनों पर दृष्टि डाले तो वेदों में वर्णित इन गुणों वाला ईश्वर ही सबसे महान सिद्ध होता है। हमने ईश्वर का यह जो स्वरूप चित्रित किया है वह अनेकानेक मत-मतान्तरों में उपलब्ध नहीं होता। यह ईश्वर का यथार्थस्वरूप है। ऐसे आदर्श गुणों वाला ईश्वर ही हम सभी मनुष्यों का उपासनीय होने के साथ स्तुति व प्रार्थना के योग्य है। ईश्वर की स्तुति करने का तात्पर्य ईश्वर का उसके असंख्य व अनन्त उपकारों के लिए धन्यवाद करना है। स्तुति करने से हमें ईश्वर के गुणों को जानकर उन्हें अपने जीवन में धारण करने की प्रेरणा मिलती है जिससे हम उसके जैसे महान तो नहीं बन सकते परन्तु अपनी आत्मा की शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार तो ईश्वर के समस्त गुणों को न्यूनाधिक अपने जीवन में धारण कर ईश्वर के प्रेम, भक्ति, आशीर्वाद व उससे शुभ कर्मो में प्रेरणा तो प्राप्त कर ही सकते हैं। ईश्वर की स्तुति करने के लिए ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों से चुनकर आठ स्तुति, प्रार्थना व उपासना के मंत्रों को चुनकर हिन्दी भाषा में उनकी व्याख्या प्रदान की है जो संसार में अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होती। गायत्री मंत्र का उनका किया अर्थ ही समस्त संसार में प्रचलित व लोकप्रिय है। गायत्री मंत्र के उनके हिन्दी के यथार्थ, प्रभावशाली व सरल अर्थ के कारण ही यह गायत्री मंत्र आज समस्त आर्य हिन्दुओं व कुछ सज्जन प्रकृति के अन्य मतावम्बियों में भी लोकप्रिय हुआ है। इन आठ स्तुति के मन्त्रों में यथार्थ व लाभप्रद प्रार्थना निहित है। आठ मंत्रों में से प्रथम मंत्र में ही प्रार्थना है ‘सवितर्दुरितानि परासुव यद् भद्रन्तन्न आसुव’ अर्थात् ईश्वर कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर करे और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको कृपा करके प्राप्त कराये। स्तुति, प्रार्थना और उपासना के सातवें मन्त्र में कहा गया है कि “हे मनुष्यो! वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम–स्थान–जन्मों को जानता है।” इससे यह भी ज्ञात होता है कि मनुष्य की सभी कामनाओं व इच्छाओं को परमात्मा ही पूर्ण करता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मनुष्य व जीवात्मा को अपनी ओर से ज्ञान बढ़ाना व अपने उद्देश्य के अनुरूप यथोचित मात्रा में पुरुषार्थ करना होता है। ऋषि ने तो सप्रमाण यहां तक कहा है कि पुरुषार्थ प्रारब्ध व मनुष्य के भाग्य से भी बड़ा है। हम जो चीज प्रारब्ध से प्राप्त नहीं कर पाते हैं उसे पुरुषार्थ से प्राप्त किया जा सकता है।
ईश्वर को हम महान इस लिए कहते व मानते हैं कि उसने अपनी सर्वशक्मितता से, इस सृष्टि के मूल कारण प्रकृति से, नाना प्रकार के परमाणु व अणु बनाकर इस सृष्टि में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह व असंख्य लोक लोकान्तर बनाये हैं। ईश्वर अनन्त है, उसके अनुरुप ही ईश्वर की रचना भी अनन्त व निर्दोष है। संसार में कितने प्रकार के प्राणी व वनस्पतियां हैं इसकी तो हम गणना भी नहीं कर सकते। ईश्वर ने ही समुद्र व नदियां बनाई, पर्वत व पर्वतों पर बर्फ उत्पन्न की तथा वायु को पृथिवी की चारों दिशाओं में बहाया व उपलब्ध कराया है। अग्नि व विद्युत भी ईश्वर के द्वारा उत्पन्न की गई हैं। ईश्वर ही सभी विद्याओं व ज्ञान तथा अपौरुषेय पदार्थों का आदि मूल कारण हैं। यदि ईश्वर न होता और वह सृष्टि की रचना कर हमें मनुष्य आदि योनियों में जन्म न देता तो हमारी आत्मा का अस्तित्व होकर भी हम न तो मनुष्य और न प्राणी योनियों में ही जन्म प्राप्त कर सकते थे। हमें मनुष्य जीवन में जो सुख प्राप्त होते हैं उनमें से कोई सुख हमें कभी प्राप्त न होता। ईश्वर ही मनुष्य को शिशु के रूप में जन्म देता है। उसी के बनाये नियमों से शिशु समय के साथ वृद्धि को प्राप्त होता हुआ बालक से किशोर, फिर युवा तथा उसके बाद वृद्ध होता है। वृद्धावस्था में शरीर जब दुर्बल हो जाता है तब परमात्मा कृपा कर वृद्धावस्था के दुःखों को समाप्त करने लिए सभी प्राणियों को पुनः नया जन्म देकर बालक, किशोर व युवावस्था के सुखों को उपलब्ध कराता है।
हम यह भी देखते हैं कि जब किसी परिवार में नया शिशु आता है तो युवा दम्पती तत्क्षण माता-पिता बन जाते हैं। परिवार में कोई नानी बनती है तो कोई नाना, कोई चाचा तो कोई ताऊ, कोई चाची तो कोई तायी, कोई बुआ तो कोई फूफा और मामा-मामी आदि बनते हैं। सभी इस नये शिशु के जन्म पर आनन्दित होते हैं और ईश्वर का धन्यवाद करते हैं। परिवार में नये शिशु के जन्म से जो आनन्द आता है वह भी परमात्मा की ही देन होती हैं। इस शुभ समाचार को सुनकर सभी मित्र व इष्ट बन्धु भी आनन्द से आह्लादित होते हैं। यह आनन्द परमात्मा की मनुष्यों को अनुपम देन है। इस आनन्द के सम्मुख संसार के अनेक सुख तुच्छ दिखाई देते हैं। ऐसी सुखद घटना होने पर परिवार के सभी सदस्य प्रसन्न होकर एक दूसरे को बधाई देते हैं और इससे उनकी प्रसन्नता में वृद्धि अनुभव की जाती है। संसार के अधिकांश लोग चाहे अमीर हो या गरीब, शिक्षित हों या अशिक्षित सभी को परमात्मा की ओर से खुशी या सुख की यह दौलत बिना किसी पक्षपात और शुल्क के प्रचुर मात्रा में मिलती है। इस अवसर पर मन से यही शब्द निकलते हैं कि ईश्वर तुम महान हो, तुम्हारा कोटिश धन्यवाद है।
परमात्मा की एक सर्वोत्तम देन उसका सृष्टि के आरम्भ में दिया गया ज्ञान ‘‘वेद” भी है। ऋषि दयानन्द ने अपने अनुभव व विवेक के आधार पर कहा है कि ज्ञान अर्थात् वेद में अनन्त आनन्द है। इस आनन्द की अनुभूति तो सिद्ध योगियों व ऋषियों को ही होती है। यदि सामान्य मनुष्यजन भी ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य एवं साहित्य का अध्ययन करें और वैदिक मान्यतानुसार पंचमहायज्ञों का पालन करें तो ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति बहुत अधिक नहीं तो उससे कुछ कम ही सही, उन्हें होती ही है। इसी कारण तो विवेकशील लोग ईश्वरोपासना व देवयज्ञ अग्निहोत्र सहित परोपकार, दान व परसेवा आदि के कार्य करते हैं। हमें कुछ क्षण पूर्व अपने संबंधियों के परिवार से पुत्र के जन्म का समाचार मिला। हमारे मन में जो विचार आया उसके अनुरूप हमने अपने कुछ विचार यहां व्यक्त किये। परमात्मा निश्चय ही सर्वतोमहान है। वह सबका उपासनीय है। हमें मिलकर एक रीति व एक विधि से ही उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र आदि कार्यो को करना चाहिये। हम सबके विचार भावनायें, मन व बुद्धि आदि एक समान होनी चाहिये। यदि ऐसा होगा तो हम अधिक आनन्द का अनुभव कर सकेंगे। ईश्वर सभी सज्जन लोगों पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखे व उन्हें सुख व आनन्द प्रदान करें। ईश्वर का बहुत बहुत धन्यवाद। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य