ग़ज़ल
आई जो मेरी बात,जहां क्यों बदल गया ?
किस्मत के नाम पे कोई,सिक्का उछल गया !
अब दोस्ती से मेरा यकीं टूटने लगा ,
जब यार दोस्ती का अर्थ ही बदल गया !
उसको कुएँ से खींचने को ,हाथ दिया था,
वह खींच के कुएँ मे मुझे ,खुद निकल गया ।
चौका हैं लोग मारते,मौके को देखकर ,
दूजों की तरह यार तो,तू भी बदल गया !
वह पीर पक्षपात की सहकर चला गया ,
उर मध्य घाव, नैन भी लेके सजल गया ।
मैं खुश हूँ, चंद शे’र में, गीतों में, गजल में ,
सीने पे उसके साँप भला क्यों टहल गया ?
वह आग मेरे हाथ से लेकर के गया था ,
जिस आग से हमारा आशियाना जल गया ।
—————–डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी