“मुक्तक”
होता रहा उत्थान, जगत का ऐसे वैसे।
मानवता को राह, मिली पग जैसे तैसे।
देख जी रहा वक्त, शख्त सुरताल लगाकर-
सुनो भी अपने गीत, मीत मन कैसे कैसे॥-1
अभ्युदय जिया मान, खान पर पान मचलता।
होगी लाल प्रभात, मनुज सूरा तन तपता।
इतराए दिन रात, सिरात भोर मन मैना-
मिला कदम की ताल, हाल हर पंक्षी उड़ता॥-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी