लेख– उपचुनाव के संकेत औऱ विपक्षी एकता की तरफ़ बढ़ता देश
भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में बीते दिनों कुछ ऐसी घटनाएं घटी। जिसकी आवाज़ औऱ खनक के कई मायने औऱ अर्थ निकलते हैं। जिससे वर्तमान समय की चल रही राजनीति तो प्रभावित होगी ही। साथ में उसका व्यापक फ़लक़ पर असर आने वाले वर्षों में भी दिखाई देगा। बात अगर की जाएं, तो बेलगाम होते घोड़े पर चाबुक चलाना ज़रूरी होता है। वह उपचुनावों में चलता हुआ दिख रहा है, क्योंकि भाजपा का शासन सम्राज्य जिस तऱीके से बढ़ रहा था, वह अपने मद में मदहोश होती दिख रही थी। उसे सिर्फ़ विपक्ष मुक्त भारत की परिकल्पना ही दृष्टिगोचर हो रही थी। यह आंकलन करना शायद उसकी प्राथमिकता से बाहर हो गया था, कि कैसे उसकी नीतियां भी पिछली सरकारों की तरह काग़ज़ी हो चली थी। वैसे उपचुनाव में विपक्ष की जीत का भले व्यापक असर न दिखे, आने वाले वक्त में। लेकिन अगर 29 वर्षों की लहर एक वर्ष के भीतर के शासनकाल के दौरान ढह गई, मतलब साफ़ है। इस हार के भीतर बड़े तूफ़ान की आहट छिपी हुई है।
जिसे नजरअंदाज करना भाजपा को आने वाले वक्त में महंगा पड़ सकता है। वैसे हम ज़िक्र पिछली कुछ दिनों की घटनाओं का कर रहें थे। पहला भाजपा का पूर्वोत्तर में राजनीतिक फ़ैलाव, दूसरा गठबंधन स्तर पर भाजपा का सहयोगी दलों से अलगाव की धमकियां मिलना, औऱ सोनिया गांधी द्वारा विपक्ष को एकजुट करने की क़वायद करना। इसके अलावा नरेश अग्रवाल जैसे नेताओं का भाजपा में शामिल होना। ये सभी राजनीतिक घटनाक्रम आपस में अंतर्निहित है, औऱ इन घटनाओं से एक बड़ा राजनीतिक परिदृश्य उभार भी लेगा। पहले बात उपचुनाव की। भाजपा उस उत्तरप्रदेश की दो सीटों पर चुनाव हार गई, जिसमें से एक मुख्यमंत्री का मठ था, तो दूसरी उपमुख्यमंत्री का गढ़। इस हार के कई मायने हैं, जिसको नजरअंदाज करके आगे बढ़ना भाजपा के लिए आने वाले राजनीतिक भविष्य में भारी पड़ सकता है। अभी- अभी तो तीन राज्यों में विस्तार भाजपा का हुआ था, और विपक्ष को सिकुड़ना पड़ा था। लेकिन ये उपचुनाव के नतीज़े जहां विपक्ष के लिए संजीवनी साबित होगा, वहीं भाजपा के लिए यह कड़वे घुट से कम नहीं। ये नतीज़े बता रहें हैं, कि सोया हुआ विपक्ष एकजुट होकर जाग रहा है, वहीं भाजपा अपने अति आत्मविश्वास औऱ राजनीतिक मद में अपने सहयोगियों को नाराज़ करके अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी चलाते हुए दिख रही है।
उपचुनाव के नतीजों को दूर भविष्य की दृष्टि से देखने की जरूरत है। बिहार की अररिया सीट जहां भविष्य की राजनीति की संकेतक है। वहीं गोरखपुर औऱ फूलपुर की हार यह बताती है, कि राजनीतिक मदांधता औऱ अति आत्मविश्वास के साथ बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं की नाराजगी किस हद तक पार्टी के लिए तकलीफ़देह हो सकती है। फूलपुर औऱ गोरखपुर की हार 1992 के दौर की याद दिला रही। जब कांशीराम औऱ मुलायम सिंह के मिलन से भाजपा को हार झेलनी पड़ी थी। जिस योगी आदित्यनाथ के सिर पर पूर्वोत्तर विजय का सेहरा सज रहा था। ऐसा क्या हुआ, कि उन्हीं का वह मठ 29 वर्ष बाद क्यों हिल गया। इसके पीछे कई कारण हैं। जिसमें पहला कारण उत्तरप्रदेश सूबे के मंत्रियों की बेतुका बयानबाज़ी, और मूलभूत सुविधाओं के तरफ़ रहनुमाई तंत्र की बेरूखी, साथ में जातिगत समीकरण की अनदेखी करना रहा। तो सपा-बसपा का साथ आना भी भाजपा के हार का एक कारण रहा। उत्तरप्रदेश उपचुनाव में विपक्ष की जीत का श्रेय अगर सपा-बसपा के गठजोड़ से हुआ, तो इसे नई औऱ दूरगामी सोच की राजनीति मानी जा सकती है।
बीते दिनों सोनिया गांधी द्वारा 20 दलों को रात्रिभोज देना यह साबित करता है, कि वह 2019 के लिए क़मर कसती हुई नज़र आ रही। कांग्रेस भले ही इसे गठजोड़ की राजनीति न कहे, पर बिसात तो 2019 के लिए ही तैयार कर रही। औऱ अगर सपा-बसपा की इस जीत के मायने देखें। तो पता चलता है, कि विपक्ष अगर एकजुट होता है तो भाजपा का विकल्प तैयार किया जा सकता है। भले ही वह विकल्प भी सत्ता स्वार्थ के लिए ही क्यों न तैयार किया गया हो। अब जब आने वाले वक्त में चुनाव कर्नाटक, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में होने वाले हैं। साथ में मध्यप्रदेश और राजस्थान सरकार की नीतियों से राज्य की अवाम कुछ हद तक संतुष्ट भी नहीं। तो मौका तो कांग्रेस के पास जमीं 2019 के लिए है ही। जिस तरफ़ विपक्षी एकता स्थापित करके आगे बढ़ने की जुगत सोनिया गांधी कर भी रहीं हैं। तो अब स्थितियां विपरीत तो केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के जाती दिख रहीं। जिससे निपटने का ज़मीनी प्रयास भाजपा को करना होगा। अगर लड़ाई में एकतरफा बने रहना है, तो। वरना रास्ते में कांटे दिखने तो शुरू हो चुके हैं। जिससे मुँह फेरने का अर्थ सत्ता से बेदख़ली भी 2019 में हो सकता है, क्योंकि जिन नीतियों को सरकार ने बनाया। उसके परिणाम बीते लगभग चार वर्ष में धरातल पर दिखे नहीं। और तो औऱ पार्टी तो मोझदायनी गंगा से बढ़ कर सामने आई। जो अपने में विपक्षी नेताओं को शामिल करते ही उन्हें स्वच्छ करार दे देती है।
ऐसे में बात इतनी ही है, अपने हितोउद्देश्य के लिए जुमलेबाजी की राजनीति ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकती। जनता भी अब समझदार हो रही है। उसे भी सही-गलत नज़र आने लगा है। फ़िर सिर्फ़ सपनो को बेचकर ज़्यादा दिन तक राजनीति नहीं की जा सकती है। वैसे राजनीति में एक वर्ष का समय काफ़ी नहीं होता, लेकिन बिहार औऱ उत्तरप्रदेश में भाजपा की हार 2019 के लिए परेशानी खड़ी कर सकती है। चुनाव के नतीज़े बयाँ कर रहें, कि भाजपा के रणनीतिकारों ने सपा-बसपा के गठजोड़ को कम आंकने की भूल की। इसके साथ अगर बिहार में भी भाजपा को हार मिली तो मतलब साफ़ है, अवाम समझ गई है, कि बिहार में गठबंधन सियासी स्वार्थ के लिए चल रहा है। इन चुनावों में भले कांग्रेस जो देश की सबसे बड़ी पार्टी है, वह दूर-दूर तक नज़र नहीं आई, लेकिन पूर्व में मध्यप्रदेश औऱ राजस्थान राज्यों में उपचुनाव जीतने वाली पार्टी को नया विचार जरूर इन उपचुनावों से मिला है। कि अगर गठजोड़ की राजनीति में मजबूत उपस्थित दर्ज 2019 से पहले करा सकती है। तो 2019 की राह उसके लिए आसान हो सकती है। इन उपचुनाव के नतीजों से राष्ट्रीय फ़लक प्रभावित होता भले न देखा जाएं, लेकिन इस हार से तीन बातें तय है। अब विपक्षी एकता ज़ोर पकड़ सकती है। दूसरा भाजपा को उपचुनाव हार पर मंथन करना होगा, अगर सत्ता में आने वाले वक्त में भी बने रहना है। तीसरी बात इन उपचुनावों में हार से मोदी की छवि भले प्रभावित नहीं हो रही, लेकिन राज्य स्तर पर उसके चेहरे कमज़ोर औऱ धूमिल आवश्यक हो रहें हैं। साथ में उसे सत्ता विरोधी रुझानों का सामना करना पड़ता है। एक बात ओर अगर विपक्षी एकता के सामने भाजपा कमजोर पड़ जाती है, जो बिहार राज्य विधानसभा चुनाव और अब उत्तरप्रदेश उपचुनाव में दिखा, मतलब साफ़ है, कुछ सुधार तो नीतियों में भाजपा को करना होगा। साथ में अति आत्मविश्वास से बचना होगा। तभी वह केंद्र की राजनीति के रेस में लंबे वक्त का घोड़ा साबित हो पाएगी।