वर्ष का नया दिन नव-संवत्सर इतिहास का एक गौरवपूर्ण दिन
ओ३म्
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अर्थात् 18 मार्च, सन् 2018 से नव सृष्टिसंवत एवं विक्रमी संवत्सर का आरम्भ हो रहा है। हमारे पास काल वा समय की अवधि की जो गणनायें हैं वह मुख्यतः दिन, सप्ताह, माह व वर्ष में होती हैं। यदि सृष्टि की उत्पत्ति, मानवोत्पत्ति अथवा वेदोत्पत्ति का काल जानना हो तो वह वर्ष व वर्षों में बताया जाता है। वैदिक गणनाओं में वर्ष की अवधि सामान्यतः 360 दिन मानी जाती है। लगभग इतनी अवधि पूरी होने पर वर्ष वा संवत्सर बदलते हैं। दिनांक 18-3-2018 से सृष्टि संवत् 1,96,08,53,119 आरम्भ हो रहा है, वहीं यह दिवस विक्रमी संवत् 2075 का प्रथम होगा। अंग्रेजी वर्ष आरम्भ होने पर इसको मानने वाले लोग परस्पर शुभकामनाओं का आदान प्रदान करते हैं। उन्हीं के अनुकरण से हमारे भी अनेक बन्धु इसी प्रकार से एक दूसरे को शुभकामनायें एवं बधाई देने लगे हैं। इस नये नवसंवत्सर के प्रथम दिन का यही महत्व है कि इतने वर्ष पूर्व सृष्टि, वेद व मानव का आरम्भ यहां हुआ था तथा महान पराक्रमी आर्य वा हिन्दू राजा विक्रमादित्य शकों को युद्ध में पराजित कर राज्यारूढ़ हुए थे। विक्रमादित्य जी की राजधानी उज्जैन मानी जाती है। विक्रमादित्य एक आदर्श राजा थे। वह राजा राम, योगेश्वर श्री कृष्ण एवं वैदिक परम्पराओं को मानने वाले राजा थे। उनकी स्मृति बनाये रखने के लिए तत्कालीन विद्वानों ने 2074 वर्ष पूर्व इस विक्रमी संवत्सर को आरम्भ किया था।
हम जिस संसार में रहते हैं वह व समस्त ब्रह्माण्ड ईश्वर से निर्मित व संचालित है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति सहित मनुष्यों के कर्तव्य एवं अकर्तव्यों का विस्तृत वर्णन व ज्ञान है। हमारी यह सृष्टि बिना कर्त्ता व उपादान कारण के अस्तित्व में नहीं आई है अपितु सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अजर, अमर, अविनाशी और अनन्त ईश्वर ही इस सृष्टि का रचयिता, धाराक व पालक है। अतः सृष्टि बनाने का कार्य ईश्वर ने किसी काल विशेष में आरम्भ किया होगा और किसी विशेष समय पर इस सृष्टि का निर्माण सम्पन्न हुआ होगा। यह भी निश्चित है कि ब्रह्माण्ड वा हमारे सौर्य मण्डल के बन जाने वा इसमें जल, वायु, अग्नि व अन्य सभी आवश्यक पदार्थों की उपलब्धि होने तथा जिस स्थान विशेष (अनेक प्रमाणों से यह स्थान तिब्बत था) पर मानव सृष्टि अस्तित्व में आई, वह भी इस सृष्टि का कोई दिन विशेष रहा होगा। यदि उपलब्घ जानकारी के आधार पर कहें तो उस दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन था। मनुष्यों की उत्पत्ति के साथ ही ईश्वर को सृष्टि उत्पत्ति के आदि काल में उत्पन्न युवावस्था वाले स्त्री-पुरुषों को जीवन के व्यवहार करने के लिए भाषा व व्यवहार ज्ञान की भी उपलब्धि करनी थी अन्यथा उनका सामान्य जीवन प्रवाह सम्भव न होता। अतः ईश्वर ने इसी दिन, चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को, चार ऋषियों, अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को, वेदों का ज्ञान देने के साथ इतर मनुष्यों को परस्पर व्यवहार करने के लिए भाषा का ज्ञान भी दिया होगा। बहुत से विद्वान इस अनुमान व मान्यता से मतभेद रख सकते हैं। ऐसे विद्वान महानुभावों से हमारा निवेदन है कि वह या तो वैदिक मान्यताओं को स्वीकार करें या अपनी बातों को युक्ति व प्रमाण सहित प्रस्तुत करें जिससे इस विषय की भ्रान्तियों का निराकरण हो सके।
आर्य पर्व पद्धति के लेखक पं. भवानीप्रसाद जी का कथन है कि यह इतिहास बन गया कि सृष्टि का आरम्भ चैत्र के प्रथम दिन अर्थात् प्रतिपदा को हुआ था, क्योंकि सृष्टि का प्रथम मास वैदिक संज्ञानुसार मधु कहलाता था और वही फिर ज्योतिष में चान्द्र काल गणनानुसार चैत्र कहलाने लगा था। इसी की पुष्टि में ज्योतिष के हिमाद्रि ग्रन्थ में यह श्लोक आया है ‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु, तदा सूर्यादये सति।।’ अर्थात् चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत् की रचना की। यह भी बता दें कि औरंगजेब के समय में भी भारत में नवसम्वतसर का पर्व मनाने की प्रथा थी। इसका उल्लेख औरंगजेब ने अपने पुत्र मोहम्मद मोअज्जम को लिखे पत्र में किया है जिसमें वह कहता है कि काफिर हिन्दूओं का यह पर्व है। यह दिन राजा विक्रमादित्य के राज्याभिषेक की तिथि है।
भारतीय नव सम्वतसर की यह विशेषता है कि यह ऐसी ऋतु में आरम्भ होता है कि जब न अिधक शीत होता है, न उष्णता और न ही वर्षा ऋतु। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन वातावरण बहुत सुहावना व मनोरम होता है। खाद्यान्न गेहूं की फसल लगभग तैयार हो जाती है। सभी वृक्ष व वनस्पतियां हरे भरे होते हैं जो आंखों को आह्लादित करते हैं। सर्वत्र नये नये पुष्प अपनी सुन्दरता से एक नये काव्य की रचना करते प्रतीत होते हैं। यह समस्त वातावरण व प्राकृतिक सौन्दर्य अपने आप में एक उत्सव सा ही प्रतीत होता है। यही ऋतु मानवोत्पत्ति के लिए उपयुक्त प्रतीत होती है। यदि अन्य ऋतुओं में मानवोत्पत्ति होती तो हमारे आदि स्त्री-पुरुषों को असुविधा व कठिनाई हो सकती थी। ईश्वर के सभी काम निर्दोष होते हैं। अतः यह उसी का परिणाम है कि मानव सृष्टि उत्पत्ति ईश्वर ने एक सुन्दर व सुरम्य स्थान तिब्बत जहां पर्वत व वन हैं, शुद्ध वायु बहती है तथा जल भी सुलभ है, की थी। हमें यह अनुभव होता है कि इस दिन हमें अपने आदि पूर्वजों को स्मरण कर स्वयं को उन जैसा चरित्रवान्, ज्ञानी व स्वस्थ व्यक्ति बनाने का संकल्प वा प्रयास करना चाहिये। यदि विश्व के सभी लोग परस्पर मिल कर उस आदिकालीन स्थिति पर विचार करें तो अविद्या व अज्ञान पर आधारित तथा मनुष्यों के दुःख के प्रमुख कारण मत-मतान्तरों से मनुष्यों को अवकाश मिल सकता है और संसार में एक ज्ञान व विवेक से पूर्ण वैदिक मत स्थापित हो सकता है जिससे संसार में सुख, शान्ति व कल्याण का वातावरण बन सकता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नवसंवत्सर के दिन ही मर्यादा पुरुषोत्तम राजा रामचन्द्र जी के अयोध्या आकर सिंहासनारुढ़ होने की मान्यता भी प्रचलित है। विद्वान मानते हैं कि इसी दिन महाभारत युद्ध के समाप्त होने पर राजा युधिष्ठिर जी का राज्याभिषेक हुआ था। आदर्श महापुरुष, ऋषि व वैदिक संस्कृति के अनुरागी रामचन्द्र जी का जन्म दिवस रामनवमी का महापर्व पर्व भी इस दिवस के ठीक नवें दिन नवमी को होता है। आर्यसमाज की स्थापना चैत्र शुक्ल पंचमी को हुई थी। यह भी भारत के इतिहास की एक युगान्तरकारी घटना है जिससे समस्त विश्व के मानवों को ईश्वर व जीवात्मा से सम्बन्धित यथार्थ ज्ञान व ईश्वरोपासना की सत्य व प्रमाणिक विधि प्राप्त हुई थी। सन्ध्योपासना की यह विधि ऋषि दयानन्द प्रोक्त है। अतः न केवल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन अपितु पूरा पक्ष ही महत्वपूर्ण है। इस पर्व को देश व विश्व में मनाया जाना चाहिये। यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी भी पर्व को मनाते समय जहां आनन्द व उल्लास होना चाहिये वहीं ईश्वर-चिन्तन और अग्निहोत्र यज्ञ का भी अनुष्ठान किया जाना चाहिये क्योंकि यह दो कार्य संसार में श्रेष्ठतम व उत्तम कर्म हैं। इसके अनन्तर अन्य सभी वेदविहित कार्य किये जाने चाहिये। ऐसा करने से ही परिवार, समाज व देश का वातावरण आदर्श व अनुकरणीय बन सकता है। यह भी आवश्यक है कि किसी भी पर्व पर किसी भी व्यक्ति को सामिष भोजन व मद्यपान किंचित भी नहीं करना चाहिये। वेदानुसार यह दोनो कार्य अत्यन्त हेय एवं घृणित हैं।
हम संसार में यह भी देखते हैं कि संसार में जितने भी मत, सम्प्रदाय, वैदिक संस्कृति से इतर संस्कृतियां व सभ्यतायें हैं, वह सभी विगत 3-4 हजार वर्षों में ही अस्तित्व में आईं हैं जबकि सत्य वैदिक धर्म, संस्कृति एवं वैदिक सभ्यता विगत 1.96 अरब वर्षों से संसार में प्रचलित है। वैदिक धर्म ही सभी मनुष्यों का यथार्थ धर्म है। यह धर्म ज्ञान व विवेक पर आधारित, पूर्ण वैज्ञानिक, युक्ति एवं तर्क से सिद्ध है। वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण वैदिक सिद्धान्तों की पोषक अन्य मतों की मान्यतायें ही स्वीकार्य होती है, विपरीत मान्यतायें नहीं। महर्षि दयानन्द ने इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार व विश्लेषण किया और पाया कि वेद और वेद सम्मत विचार ही ग्राह्य एवं अनुकरणीय हैं तथा वेद विरुद्ध मत व मान्यतायें त्याज्य हैं। इस सिद्धान्त का पालन ही सभी मनुष्यों के लिए उत्तम है। भविष्य में जैसे-जैसे ज्ञान और विज्ञान का और विकास होता जायेगा तो अवश्य ही लोग वेद विरुद्ध बातों को मानना छोड़कर सत्य ज्ञान पर आधारित वैदिक मान्यताओं को ही स्वीकार करेंगे। समय परिवर्तनशील है। सत्य हर काल में टिका रहता है और असत्य नष्ट होता जाता है। यही स्थिति अविद्या व अज्ञान पर आधारित मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों की भी भविष्य में होगी। हमें सत्य को ग्रहण और असत्य का त्याग करना है, अवद्यि का नाश और विद्या की वृद्धि करनी है तथा सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार करना है। यही वेद, ऋषि दयानन्द और सत्यार्थप्रकाश का शाश्वत् सन्देश है। सत्य पर ही यह संसार व मनुष्य समाज की सभी व्यवस्थायें टिकी हुईं हैं। सत्यमेव जयते नानृतं। सत्य की सदा जय होती है असत्य की नहीं। वेदों के ज्ञान के विस्तार की भावना, ईश्वर-जीवात्म चिन्तन और अग्निहोत्र यज्ञ करके नवसम्वतसर आदि सभी वैदिक पर्वों को मनाना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य