“कलह”
आज का मानव सुख सुविधा और विलासिता का जितना जीवन नहीं जी पा रहा है उससे कहीं अधिक का जीवन कलह के साथ जीने पर मजबूर हो रहा है। टी.वी. सीरियल से लेकर समाचार हाउस तक कलह का साम्राज्य फैला हुआ है। अर्थ व्यर्थ में हलाल हो रहा है और खर्च तराजू पर तौला जा रहा है। आन-बान और शान-सम्मान हर मोर्चे पर आग बबूला होकर खुरचारी पर खुरचारी खींचे जा रहा हैं। जिससे लगने लगा है कि अगर मानव के सर पर भी सिंग होती तो आज प्लास्टिक की तरह वह भी हवा में उड़ती नजर आती और दृश्य लालिमा से भर जाते। खैर, जो भी हो पर इतना तो सत्य जान पड़ता है कि हताशा, कुंठा और चिंता के साथ मानव का मस्तिष्क अब आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक आवेगों के साथ सामंजस्य बिठाने में विफल हो रहा है और हिंसा, बलात्कार के साथ ही साथ आत्महत्या के चंगुल में फँसता जा रहा है। इस मूलभूत समस्या के बीच में आपसी कलह तो जवाबदार नहीं जो आए दिन किसी न किसी बहाने मांग और आपूर्ति के विफल होने पर रिश्तों को धराशायी कर रहा है। अगर ऐसा है तो इसे समय रहते समझना होगा अन्यथा कलह के नाम पर किसी अन्य के स्वभाव का दोषरोपण और कुप्रपंच तबाही का जरिया बनकर हमें पश्चाताप के दावानल में डुबो देगा।
घर में किचकिच से तंग आकर झिनकू भैया महीनों गाँव से बिना किसी को कुछ बताए अंतर्ध्यान हो गए, जब वापस लौटे तो अपने अर्जित ज्ञान के पिटारे का मुंह खोला और एक ही सांस में इतना कुछ कह गए।
— महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी