“गीत”
छंद- आनंदवर्धक (मापनीयुक्त) मापनी- 2122 2122 212
ऋतु बसंती रूठ कर जाने लगी
कंठ कोयल राग बिखराने लगी
देख री किसका बुलावा आ गया
छाँव भी तप आग बरसाने लगी॥
मोह लेती थी छलक छवि छाँव की
लुप्त होती जा रही प्रति गाँव की
गा रहे थे गीत गुंजन सावनी
अब कहाँ रंगत दिवाली ठाँव की॥
हो चला कितना निराला साजना
ढूँढता दरिया किनारा बाजना
छोड़ मत जाना पुरानी नाव को
घाट लहराने लगी है भावना॥
यदि कभी फुरसत फले तो आ मिलो
हो सके तो बाग अपने जा खिलो
देख आओ क्या वहीं खलिहान है
वह गली क्या फिर हँसी सुन जा हिलो॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी