गीतिका
इतना मत खुद पे ताप सहो , तुम एक जलावन बन जाओ
इतने न विभीषण पालो तुम , की खुद ही रावण बन जाओ
है अलग अलग छत्रप जितने , सबकी धरती क्यो हड़प रहें
है राज दिया तुम राम बनो , मत आप युँ वामन बन जाओ
हे पतित पावनी गंगा माँ , कब तक यूँ पाप हरोगी तुम
इतना भी मैला मत धोना , तुम आप कृपण ही बन जाओ
जो भी आता है राहों में सबको गलबहियाँ मत डालो
न धूल सभी की साफ करो, तुम स्वयं न झाड़न बन जाओ
— मनोज “मोजू”