लेख– युवाओं को दरकिनार करके आज की परिस्थिति में नहीं चल सकती राजनीति
राजनीति में ऊँट कब औऱ किस करवट बैठेगा, यह कहना अतिश्योक्ति से कम नहीं होगा। वह भी आज के सामाजिक औऱ राजनीतिक परिवेश में तो एकदम मुश्किल। तमाम दल लगभग एक वर्ष पूर्व ही 2019 आम चुनाव की तैयारियों में दिख रहें हैं। तो हालिया चुनावी नतीजों ने यह साफ़ किया है, कि 2019 में स्थितियां 2014 जैसी नहीं रहने वाली। नए तरीक़े का सियासी समीकरण होगा, तो सामाजिक औऱ आर्थिक मुद्दों पर भी बात होगी। सत्ता पक्ष के प्रति जनाक्रोश भी चरम पर नहीं होगा। पर सबसे बड़ी औऱ गौर करने वाली बात।
इस आम चुनाव को सबसे अधिक प्रभावित करने का काम कोई करेगा, तो वह युवा पीढ़ी होगी, जो आज के परिवेश में न सिर्फ़ अपने अधिकारों के प्रति सज़ग है। साथ में संचार तकनीक से जुड़ी हुई औऱ राजनीतिक अवहेलना की शिकार भी। ऐसे में लड़ाई उस वक्त आसान नहीं होगी, जब दस करोड़ युवा मतदाता मताधिकार का उपयोग पहली बार करने के लिए तैयार होंगे। अगर बात 10 करोड़ नए मतदाता की करें, तो 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में प्रति वर्ष 2 करोड़ युवा मतदाता तैयार हो रहें। जब मतदाता 18 वर्ष की आयु में पहुँचता है। फ़िर उसके सामने सामाजिक जीवन का आकाश खुलना शुरू हो जाता है। उसे अपनी सामाजिक अहमियत समझ आने लगती है। साथ में राजनीतिक व्यवस्था के प्रति उसकी कुछ आशाएं और आकांक्षाएं भी जन्म लेती हैं। जैसे बेहतर शिक्षा व्यवस्था की, स्वास्थ्य औऱ आगे चलकर अच्छी नौकरी आदि की।
ऐसे में अगर हम बात 2014 के आम चुनाव की करें। उससे पूर्व गुजरात के ब्रांड रहें मोदी ने नौजवानों की अपेक्षाओं को 2014 लोकसभा चुनाव के पूर्व समझा ही नहीं, उन युवाओं के लिए ऐसे क़सीदे भी रचें। जिससे युवाओं में यह उम्मीद पैदा हुई, कि उन युवाओं की अपेक्षाओं को पूरा करने का भगीरथ प्रयास कोई कर सकता है। तो आज के राजनीतिक युग में सिर्फ़ ख़ुद मोदी है। जिस छाप को छोड़ने में मोदी कामयाब शत- प्रतिशत रहें, औऱ 2014 में सत्ता की चाबी यूपीए सरकार से छीन ली। अब अगर चार वर्ष बाद स्थितियों को भांपा जाएं, तो स्थितियां करवट ले चुकी हैं। मोदी सरकार ने जो हसीन सपने दिवास्वप्न के रूप में दिखाए थे, अब वे धूलधूसरित होते दिख रहे। फ़िर भी युवाओं का रुझान भाजपा की तरफ़ ही बने रहना अगर भाजपा को आज के दौर में मजबूत बना रहा, तो अन्य दलों की कमजोरी का कारण भी बन रहा। आज हम मोदी की शख्सियत पर नज़र फेरे तो पता चलता है, कि मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतीक भी नहीं हैं। उनकी अपनी अलग छवि है। देश के हर तबक़े हर समाज के लोगों को ज्ञात है, कि हमारी युवा पीढ़ी रूढ़िवादी नहीं है। इसके साथ अगर आज भाजपा के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शहरी विकास के प्रतीक हैं साथ ही हिंदुत्व के बिम्ब भी। तो ऐसे में अगर भारत की युवा पीढ़ी धार्मिक असहिष्णुता के बाद भी मोदी की ओर देख रहा। तो विचार-विमर्श तो उन दलों को भी करना चाहिए, कि युवा मतदाता उनसे इतनी दूरी क्यों रख रहा है या रखना चाह रहा है।
कितनी बड़ी विडंबना की बात है, कि युवाओं को रोजगार दिलाने और अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार का रिकॉर्ड बेहतर नहीं रहा है। बीते चार वर्षों में फ़िर भी युवाओं का विश्वास औऱ उम्मीदों का ढांढस भाजपा और मोदी के प्रति बंधा है। यह बात शोध का विषय बन सकती है, कि क्या कारण है जिससे युवा मोदी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं। ऐसा कौन सा जादू मोदी ने व्यक्तिगत स्तर पर किया है, कि उनकी माला युवा जपने को विवश है। बढ़ती बेरोजगारी औऱ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न मिलने के दौर में भी। युवा मोदी के साथ ही है, इसका उदाहरण त्रिपुरा चुनाव में अभी हाल में भी देखने को मिला। भाजपा की युवाओं पर गहरी पकड़ का कारण उसके नेतृत्वकर्ता मोदी द्वारा कई तरह के बोल बोल कर युवाओं को दिवास्वप्न में रखने की कला भी है। आज भाजपा युवाओं को आकर्षित करने के लिए रंग-रंग के पत्ते फेंक रही। जरूरत के मुताबिक चाल चली रही।जिस मोर्चे पर वाम दल औऱ कांग्रेस अपने को भाजपा से काफ़ी दूर पाते हैं। अगर आंकड़ों के पैमाने पर नज़र फ़ेरी जाएं, तो 2001 से 2011 के बीच शहरी आबादी 17 फ़ीसद से छलांग लगाकर 26 फ़ीसद पहुँच जाती है। इंटरनेट के बढ़ते चलन और मीडिया के बाहुल्य ने गांव में बैठे एक युवा को महानगरों की न सिर्फ़ झलकियां दिखाई, बल्कि वहां पहुंचने की ललक भी युवाओं में पैदा किया। जिससे युवाओं में उम्मीदें और अपेक्षाएं तीव्र गति से बढ़ गईं। साथ में शिक्षा के विकास के बाद अब युवा गांव में रहकर खेती-किसानी करना भी नहीं चाहता। जिसको भुनाने का काम भाजपा ने 2014 के आम चुनाव के पूर्व इस वादे के साथ किया, कि अगर वह सत्ता में आई तो 2 करोड़ युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराएगी। जिसको हकीकत मानकर युवा जमात भाजपा के पाले में जा गिरी। जिसे भाजपा से छिनने की दिशा में आगे कोई नया विचार रखकर अपने पाले में लाने का कांग्रेस औऱ वाम दलों के पास विकल्प दिख नहीं रहा, जिस कारण संसदीय लोकतंत्र में कांग्रेस और वामपंथ एक तरह से आकाश कुसुम की तरफ़ आज के दौर में बढ़ रही।
एक आँकड़े के मुताबिक 2020 तक भारत दुनिया का सबसे नौजवान देश हो जाएगा। शहरों में 29 वर्ष की आयु वर्ग के सबसे ज्यादा लोग मिलेंगे। तो कांग्रेस और वामपंथ का भविष्य इसी में है कि वे युवा वर्ग के लिए विकासशील आर्थिक और सामाजिक उदारवाद की राह तैयार करें। सिर्फ़ विपक्षी एकता से काम सफ़ल नहीं होने वाला। इसके साथ ही सामूहिक न्याय के प्रति वर्ग चेतना पैदा करें। हाल के उपचुनाव ने भी यही साबित किया है, कि युवा पीढ़ी अब निर्णायक स्थिति में आ रही है। अगर अररिया सीट को उदाहरण के रूप में देखें, तो जनवरी 2018 तक इस सीट पर 70000 लोग 18 से 19 वर्ष के बीच के हैं। साथ में 20 से 29 वर्ष के लोगों की संख्या लगभग 5 लाख 80 हज़ार है। ये वो युवा जमात के लोग हैं, जो सूचना-प्राधौगिकी से ज़ुड़े हुए हैं, स्वतंत्र सोच को रखते हैं औऱ साथ में अभी राजनीतिक उपेक्षा के शिकार भी। यह समाज ऐसा है, जो तुलनात्मक अध्ययन के साथ सोशल मीडिया का वाहक भी हैं। तो अगर विपक्षी राजनीतिक दलों को 2019 में सत्ता हासिल करनी है, तो युवाओं की दख़ल-दलील को सुनना होगा।
गठबंधन आदि बनाना इन पार्टियों के लिए अच्छी बात है, पर युवाओं के लिए वे क्या विचारधारा रखती है, साथ में उनके उत्थान के लिए क्या क़दम उठाएगी उसका ज़िक्र करने के साथ सोशल मीडिया को नियंत्रित इन दलों को करना होगा। विपक्षी दलों की नई सामाजिक और आर्थिक नीतियां क्या होंगी, साथ में उन में युवाओं की भागीदारी क्या होगी। सरकार को लाभकारी संस्था बनाने और लाभांश को प्रत्येक जनता तक पहुँचाने की नीति कैसी और कितनी पारदर्शी होगी। अगर यह सब खाका तैयार करके युवाओं औऱ जनता के बीच विपक्षी दल जाएं, तो उनकी राह आसान हो सकती है, नहीं तो चुनावी मैनेजमेंट, सोशल मीडिया औऱ लच्छेदार विकास की बातें औऱ जुमलेबाजी में भाजपा से आगे तो कोई दल दिखता नहीं, जो जनमत खींचने का माद्दा भी रखता है। औऱ कुछ सार्थक नीतियां भी उनके पाले को मजबूत कर रहीं।